Book Title: Gyan Swaroday
Author(s): Kabir Sadguru
Publisher: Kabir Dharmvardhak Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી 9 જૈન ગ્રંથમાળા 6) દાદાસાહેબ, ભાવનગર, beghee-2eo : Pછે - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat e ૩૦૦૪૮૪૬. www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHAM I THormatITIHARITRAININNA IL 2990 ॥ सत्यनाम॥ बालवल्लभ चेतन ग्रंथमाला पु. ५ सद्गुरु कबीर साहब PHIRAHUTAHIRAINRITAMARINA ltimantimillimatitunsar का MAHATISAMAmumAIRANIHITHAITAHIRE l ज्ञान स्वरोदय HITILIUMilllllllll [पवन स्वरोदय, तत्त्व स्वरोदय, दुर्लभयोग तथा बड़ा. संतोष बोध और गर्भावलि के साथ ] M - TARIH ARI TANHITHILI TIMILA DillllllllIMMINISTRIBAHBID00011 प्रकाशकश्री १०८ महंतश्री बालकदासजी साहेब कबीर धर्मवर्धक कार्यालय, सीयाबाग-बड़ोदा। IREFERHITARAHIMPIRITAMITHINITITIESCHIMNAMITHAITAH INTHIN. FACHHISHAIMAHI1i मूल्य ०-८-० (डाकखर्च अलग ) mmarMHATTIMITHHTHAIKHITAMINIHIIIPRIMINAHINIDHNiliMHAMITABPMINATIOHIBITE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTTAMBINIREMPIRANIROPELIPARDAR SANUMA DAYAMIMIM ॥ सत्यनाम ॥ घालवल्लभ चेतन ग्रंथमाला पु. ५ सद्गुरु कबीर साहब का ज्ञान स्वरोदय [ पवन स्वरोदय, तत्त्व स्वरोदय, दहमा गाया बड़ा संतोष बोध और गोलि के साथ TRY प्रकाशक महंतश्री बालकदासजी मुरुश्रीवल्लभदासजी साहेब कबीर धर्मवर्धक कार्यालय, कि सीयाचाग, कबीर साहेब का मंदिर, बडोदाग देस मुनरति) IMHANIHTHAWAIIMINALLAHITHILITARINITIHATTITHUSHMITA MI NITUDENHINDIHINDIIIHAUMPETIMMUIIIMMUNIVASIMIUIINIMINIUPailumnudiailunilMARHILIMillllllInitiuit: WHAmAITINAT i lltuTIMMINISTRATILL मुद्रकपं. मोतीदासजी चेतनदासजी श्री कबीर प्रेस, सीयावाग-बड़ोदा. सं. २००६ । सत्कवीर प्राकट्य सं. ५५१ । सन १९४२ ।। द्वितीयावृत्ति । सर्व हक्क प्रकाशक के स्वाधीन है। । प्रत २००० मूल्य ०-८-० (डाकखर्च अलग) TimeMAITRATEHPUMAImMMIMINARUBAITAMARPALIFE Ju Wu WOWTR ADRIAlim.I JAUNDKWInnumHINDIP Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनाम वक्तव्य Re सद्गुरु की दया से आज हम सुज्ञ प्रेमी ग्राहकों के हस्त में " कबीर धर्मवर्धक कार्यालय" का पाँचवा ग्रंथ " ज्ञान स्वरोदय" दे रहे हैं। ग्रंथ कैसा और कितना उपयोगी है यह हम नहीं कह सकते, क्यों कि “जाको ज पा गुरु मिला, ताको तैसी सूझ" सद्गुरु के इस वचनानुसार जिसको जैसी समझ बूझ होगी व उसी दृष्टि से ग्रंथ को देखेंगे, विचारेंगे और लाभ उठावेंगे । और यह ग्रंथ स्वरज्ञान के साथ साथ आत्म-दर्शन तथा आत्मज्ञान के सरल, शुभ और अपूर्व सहज मार्ग का प्रदर्शन करता है। इसलिये प्रत्येक आत्मज्ञानपिपासु का कर्तव्य है कि अवश्य लाभ उठावें । ग्रंथ को शुद्ध सुंदर और अच्छे चिकने कागज पर छपाने में यथाशक्ति पूग यत्न किया गया है । कुछ काना मात्रादि की भूल हो तो सुधार लेवें ऐसी नम्र प्रार्थना है। ___ " पवन स्वरोदय, तत्त्र स्वरोदय, दुर्लभ योग, वड़ा संतोष बोध तथा गर्भावली " ये ग्रंथ भी उपरोक्त विषय के ही हैं। इनको भी इस ग्रंथ में दे दिये गये हैं। ये ग्रंथ कैसे जीवनोपयोगी और ज्ञानपूर्ण हैं, यह तो केवल पढ़ने विचारने से मालूम हो सकता है । __ आनंद की बात तो यह है कि कबीर साहित्य के गूढार्थ के ज्ञाता स्वामी श्री महन्त साहेब श्री बालकृष्ण सजी साहेबने विद्वत्त पूर्ण सारगर्भित भावपूर्ण प्रस्तावना लिख दी है । इस लिए कबीर धर्मवर्धक कार्यालय उनका ऋणी है। कबीर पंथ विभूति श्रीमान् पंडित श्री मोतीदासजी साहेब ने प्रेस संबंधी तमाम कार्य ध्यानपूर्वक किये हैं और ग्रंथ को सुघड, सुंदर और स्वच्छ छपाई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगैरह खंतपूर्वक किये हैं। ऐसे ही कार्य करने की शक्ति सद्गुरु उन्हें प्रदान करें। आशा है, सद्गुरु के ज्ञानपिपासु प्रेमी सजन, इन ग्रंथों को अपना कर हमारे उत्साह को बढावेंगे । सारभूत कुछ दोहे देकर हम इस वक्तव्य को पूरा करते हैं : सतगुरु सत्य कबीर हैं, सब पीरन के पीर । शरण गहै, हंस हि बनै, पहुँचे भव जल तीर ॥ जो चाहो निज मुक्ति को, गहो स्वरोदय ज्ञान । श्वासा में साहिब मिले, समझो ज्ञान सुजान । सतगुरु का आदेश यह, समझि बूझि गहि लेव । पावै निज 'चैतन्य' को, श्वासा में निज मेव ॥ "कहता हूं कहि जात हूं. काह बजावू ढोल । श्वासा खाली जात है, तीन लोक का मोल ॥ मुझे कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में। कहैं कबीर सुनो भाई साधो, मैं श्वासों के श्वास मै"॥ सूचना :- 'साखी ग्रंथ ' की दूसरी आवृत्ति छप रही है। रजिस्टर में नाम दर्ज करावें ताकि तैयार होतेही मिल जावें । ज्येष्ठ पूनम । १.-६-४९ । प्रकाशक, महंत श्री बालकदासजी साहेब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सत्यनाम ॥ प्रस्तावना आध्यात्मिक विज्ञान-जगत् में ' स्वरोदय ' विज्ञान का भी अपनी मौलिक विशेषताओं के कारण अनोखा स्थान है। स्वरोदय-विज्ञान याने प्राण-विज्ञान । और प्राण तो जगत्जीवों का मुख्य जीवन-स्रोत है ही अर्थात् प्राण पर ही प्राणिमात्र का जीवन-क्रम, उत्पत्ति, स्थिति और लयादि का होना निर्भर है। श्रति 'प्राणं देवा अनुप्राणन्ति ॥ मनुष्याः पशवश्च ये ॥ प्राणो हि भूतानामायुः । तस्मात्सर्वायुषमुच्यते ॥' ( तैत्तिरीयोपनिषत् ) अन्तर्जगत्-शरीर में जिसको प्राण कहा जाता है, उसीको बाह्य जगत् में सूर्य कहते हैं, और प्राण जैसे शरीर-जगत् का जीवनकेन्द्र है, वैसेही सूर्य बाह्य जगत् का जीवन-स्रोत है। श्रति 'सूर्यश्च आत्मा जगतश्च तस्थुः ॥' इससे यह निष्पन्न हुआ कि, प्राण और सूर्य एक ही है। पर, स्थानभेद और उपाधिभेद के कारण ही उसके स्वरूप और नाम के भेद है । सौर जगत् के समग्र कर्म-व्यापार, ज्ञान-विज्ञान, शीत-आतप, वर्षादि ऋतु, उत्पत्ति, स्थिति, संहारादि जितने मी सजीव-निर्जीव पदार्थों का परिवर्तन और जीवन-व्यापार हैं, वे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबके सब सूर्यदेव पर ही अवस्थित हैं। वैसे ही अन्तर्जगत् के निखिल कर्म व्यापार प्राण पर ही आश्रित हैं। अर्थात् बाह्य जगत् में एकमात्र सूर्य, और शरीरजगत् में केवल प्राण ही ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और केन्द्र याने सभी कुछ है। श्रति 'यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद जेष्ठश्च ह वै श्रेष्ठश्च भवति प्राणो वाव ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ॥' (छान्दोग्योपनिषत् ) प्राण ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है, इतना ही नहीं; अपितु प्राण ही सब कुछ है । श्रुति__ 'प्राणो वा आशा या भूयान्यथा वा अरा नाभौ समर्पिता एवमस्मिन् प्राणे सर्व समर्पितं प्राणः प्राणेन याति प्राणः प्राणं ददाति प्राणाय ददाति प्राणो ह पिता प्राणो माता प्राणो भ्राता प्राणः स्वसा प्राण आचार्यः प्राणो ब्राह्मणः' ॥१॥ ....'प्राणो ह्येवैतानि सर्वाणि भवति । (छान्दोग्योपनिषत् ) एवं बाह्यान्तर्जगत् के जीवन-स्रोत सूर्य और प्राण ही हैं । यह निर्विवाद सिद्ध है। अतएव प्राण और सूर्य के तानेबाने से ही अखिल विश्व का स्थूल सूक्ष्म कर्म-व्यापार, और ज्ञान-विज्ञान आदि अनुस्यूत, ओत-प्रोत होकर सम्यक् रूप से संचालित हो रहे हैं । ऐसा ज्ञान जिस विद्वान् पुरुष को प्राप्त हो जाता है, वह अमर बन जाता है। श्रति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘य एवं विद्वान् प्राणं वेद ॥ न हास्य प्रजा हीयतेऽमृतो भवति तदष श्लोकः ॥ ११ ॥ उत्पत्तिमायतिं स्थानं विभुत्वं चैव पञ्चधा'। अध्यात्मं चैव प्राणस्य विज्ञायामृतमश्नुते विज्ञायामृतमश्नुत इति' ॥१२॥ इति तृतीयः प्रश्नः ( प्रश्नोपनिषत् ) अर्थात् प्राण, सूर्य और उसके ज्ञान-विज्ञान का समर्थन दो चार श्रुतिवचन करते हो सो बात नहीं, किन्तु समग्र वैदिक साहित्य ही उसका भिन्न २ स्वरूप या दृष्टि से समर्थन, प्रशंसा अथवा स्तुति फल गुणगान से भरा पड़ा है। विश्वविश्रुत गायत्रीमंत्र-वेदमाता का बिरद जिसे प्राप्त है, वह उसीका अप्रतिम प्रतीक है । अस्तु, अबतक उपर्युक्त रीत्या प्राण या सूर्य-विज्ञान के संबन्ध में जो विशद विवेचन किया गया है, वह प्रस्तुत संकलन में विवर्णित उसी विषय की बहुमूल्यता और उपादेयता ठीक २ साधक को समझने में सहायभूत हो, इसीलिए है। 'ज्ञान-स्वरोदय ' और एतद्-विषयक जो इतर ग्रंथ-रत्न इस संकलन में प्रस्तुत किये गये हैं, उन सभी ग्रंथों में एक या दूसरे रूप से स्वर-विज्ञान की ही अति महत्त्वपूर्ण विशद चर्चा की गई है। संत-साहित्य और लोकहित की दृष्टि से प्राण-विज्ञान की चचा बहुमूल्य और अनुपम है । प्राण-विज्ञान को जानकर हरएक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति सुखी, समृद्ध, सुभागी और शांतिप्रद जीवन का भोक्ता बन सकता 1 सद्गुरु कबीर धर्मदास साहेब के संवादरूप में यह चर्चा निःसंदेह बहु मनोगम्य, सरल, सुबोध रूप से की गई है । सद्गुरु के शब्दों में ही उसकी सर्वोत्तमता को श्रवण करिये - सब जोगन को जोग है, सब ज्ञानन को ज्ञान । सर्व सिद्ध को सिद्ध है, तत्त्व स्वरन को ध्यान ॥ और उसकी अमोघता को सुनिए, ' धरनि टरे गिरिवर टरे, ध्रुव टरे सुन मीत । ज्ञान स्वरोदय ना टरे, कहैं कबीर जग जीत || इस दिव्य साधना का सफल परिणाम देखिए, ' ज्ञान स्वरोदय सार है, सतगुरु कहि समुझाय । जो जन ज्ञानी चित धरे, ब्रह्म रूप को पाय || अतएव स्वरोदय - विज्ञान के समान दिव्य, निर्मल, सात्विक और लोकोपकारक दूसरा कोई सरल, सुगम साधना-मार्ग नहीं है । थोडे ही प्रयत्न से अपने लिये और थोडा विशेष परिश्रम करने पर औरों के लिए भी यह अति उपयोगी साधन-साथी हो जाता है । संत-मार्ग के सर्वश्रेष्ठ पथिक और संत-साहित्य के सर्वोत्तम निर्माता, परमतत्त्व के दिव्य चातक वंदनीय धनी धर्मदास साहेब की निर्मल तीव्र तत्त्वजिज्ञासा के कारण ही अनेक अनूठे तात्विक ज्ञातव्य गूढ रहस्यमय विषयों की प्रश्नोत्तर - रत्नमाला से ही संतसाहित्य देदीप्यमान हो रहा है । इस संकलन में जो २ ग्रंथरल ― Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिए गये हैं, वे सब के सब बहुमुल्य और जनोपयोगी हैं । इन सब ग्रंथोंमें लौकिक, पारलौकिक और आध्यात्मिक सुख-समृद्धि के हेतुभूत प्रश्नों की खूब विशद विचारणा की गई है । जो हरएक व्यक्ति के लिए अति उपयोगी और हितसाधक है। ऐसे लोकोपयोगी मुंदर, सुखप्रद ग्रंथरत्नों का संकलन और प्रकाशन कर पू० म० श्री बालकदासजी साहबने संत-साहित्य की रक्षा-प्रचार की दृष्टिसे और जिज्ञासु जनों की हित कामनाकी दृष्टि से जो पवित्र सेवा और पूर्ति की है, उसके लिए सचमुच ही वे सर्वथा प्रशंसा और आभार-अभिनंदन के अधिकारी हैं। और बाह्यान्तर सुंदरता, छपाई, सफाई, आकार-प्रकारको सुखद मनोरम्यता और नेत्रप्रियता प्रदानकर्ता पं० श्रीमोतीदासजी साहेब भी हमारे अभिनंदन और प्रशंसा के पात्र हैं। ___ दयासागर, सद्गुरु कबीर धर्मदास साहेब, उन्हें ऐसे निर्मल सुखप्रद कार्योंका विशेष वितान करने की सर्वतोमुखी क्षमता प्रदान करें, यही नम्र मंगल कामना और प्रार्थना है। जो लोग अपनी किसी भी प्रकार की कामनाओं की पति के लिये यत्रतत्र भटकते हैं और दुःख उठाते हैं। और अन्त में गहरी निराशा के गढ्ढे में गिर कर विनाशको प्राप्त होते है; उन सबसे नम्र प्रार्थना है कि, इस सर्वोत्तम प्रकाशन का अमोघ लाभ उठाकर लाभान्वित होनेका सदा प्रयत्न करें । इति शम् ! ज्ञानाश्रम-विश्वामित्री, मत स्वामी श्री बालकृष्णदासजी साहेब. ता. ६-६-४९. महत स्वामा ला बालकृष्णदासजा साहब. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनाम । सद्गुरु कबीर साहिब का ज्ञान स्वरोदय । मङ्गलाचरणम् । श्लोकः । प्रत्यक्ष - सर्वेश्वरम् । श्वेताम्बरैः शोभितम् ॥ सत्यं बोधमयं नृरूपममलं, रत्नैर्मण्डितशीर्षशुभ्रमुकुटं मुक्तामालविभूषितं च हृदयं, सिंहासने संस्थितम् । भक्तानां वरदं प्रसन्नवदनं, श्रीसद्गुरुं नौम्यहम् ॥ धर्मदास वचन | सत्तनाम गुरुदेव जू, वंदन करूँ अनन्त । तुव प्रसाद सुर भेद को, धर्मदास पुरुषोत्तम परमातमा, पूरन आदि पुरुष अविचल तुही, तोहि नमायूँ सत्कबीर बचन । जान । क्षर ॐकार सु कहत हैं, अक्षर सोहं निहअक्षर स्वासा रहित, ताही को मन आन ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com पूछन्त ॥ १ ॥ विस्वावीस | सीस ॥२॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय। ताही को मन आन, रात दिन सुरत लगावौ । आपू आप हि बीच, और न सीस नमावौ ।। सो हि कबीर कथि कहत हैं, अगम निगम की साख । येहि बचन ब्रह्मज्ञानका, धर्मदास चित राख ॥११॥ ओहं सों काया भई, सोहं सों मन होय । निहअक्षर स्वासा भई, धर्मदास भल जोय ।। धर्मदास भल जोय, बैंचि मन तहँवाँ राख्यो । क्षर अक्षर है एक, मनकी दुविधा नाख्यौ । जब दसैं एक हि एक, भेप है सबहि तुम्हारो । डार पात फल फूल, मूल सो सब हि निहारो ॥२॥ श्वासा सों सोहंग भयो, सोहं सों ॐकार । ओहं सों र्रा भयो, धर्मनि करहु बिचार ।। धर्मनि करहु विचार, उलटि घर अपने आवो । घट घट ब्रह्म अनूप, समिटि कर तहाँ समावो । जब मन मनी मिले मन केर, दमकी खबर करे बेर बेर । कहैं कबीर धर्मदास सों, उलटे मेर सुमेर ॥३॥ चार वेद को भेद है, गीता को है जीव । धर्मदास लख आपमें, तो तेरो पीव ॥४॥ सब जोगन को जोग है, सब ज्ञानन को ज्ञान । सर्व सिद्धको सिद्ध है, तत्त्व स्वरन को ध्यान ॥५॥ ब्रह्म ज्ञान को जाप है, अजपा सोहं साध । परमहंस कोइ जानि है, ताको मता अगाध ॥६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] ज्ञाम स्वरोदय । भेद स्वरोदय सो लहै, समुझे साँस उसाँस । भली बुरी तामें लखै, पवन सुरत परकास ॥७॥ धर्मदास वचन । सतगुरु हम पर दया करि, दियो स्वरोदय ज्ञान । जबसे येही जानि परि, लाभ होय की हानि ॥८॥ सत्कबीर वचन । कहैं कबीर सुन धर्मनि, चितवत हो जग ईस । येहि वचन ब्रह्मज्ञान को, मानो बिस्बावीस ।।९।। धर्मदास वचन । धर्मदास विनवै करजोरी, साहिब सुनिये विनती मोरी। दम उनमान कहो समुझाई, कहाँसे उपजै कहाँ समाई ॥ __सत्कबीर वचन। निस वासरका यहि विस्तारा, छसौ आगे इकबीस हजारा । जो यह भेद रहे लौलाई, सतगुरु मिले तो देहि बताई ।। पांच तत्व आवै अरु जाई, घटका भेद कहो समुझाई । तत्व तत्व का भेद है न्यारा, चंद सुरज ताके संग धारा ॥ सात मुनी सातों विस्तारा, सातों भेद है न्यारा न्यारा ॥ पांच तत्व का भेद गहीजै, देह उनमान साधना कीजै ।। साधे लहर समुद्र सनेहा, सब सुख पावै या जम देहा ।। महिनत कर रहे लौलीना, तत्व सनेही होय न छीना। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय । पांच तत्त्वका ध्यान जु करही, प्राण आत्मा धोखे न परही ।। पांच तत्त्व सब अंग समाना, गुन अवगुन सब कहै बखाना ।। साखी-पांचों तत्त्व विचारिये, आदि अन्त टकसार । कहैं कबिर सों बांचही, भौजलमें कडिहार ॥१०॥ सत्कवीर वचन । इंगला पिंगला सुपमना, नाडी तीन विचार । दहिने बाँये सुर चले, लखै धारना धार ॥१॥ पिंगला दहिने अंग है, इँगला बाये होय । सुषमन इनके बीच है, जब सुर चाले दोय ॥२॥ जब सुर चाले पिंगला, ता मधि सूरज वास । इँगला बाँये अंग है, चन्द्र करै परकास ॥३॥ उदय अस्त इनको लखै, निरगुन सुर गम बीध । औ पावै तत बरन को, जब वे होवे सीध ।। ४ ।। कहैं कबीर धर्मदास सों, थीर सूर पहिचान । थिर कारज को चन्द्रमा, चर कारज को भान ॥५॥ कृष्ण पक्ष जबही लगे, जाय मिलै तहाँ भान । शुक्ल पक्ष है चन्द्र को, यह निश्चय करि जान ॥६॥ मंगलवार आदित्य दिन, और शनीचर लीन । शुभ कारज को मिलत हैं, सूरज के दिन तीन ।। ७ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] ज्ञान स्वरोदय। सोमवार शुक्र हि भलो, बुध वृहस्पति देख । चन्द्र योग में सुफल हैं, कहैं कबीर विवेक ॥ ८ ॥ तिथि अरु वार विचार करि, दहिने बाँये अंग । रन जीते साजन मिले, थिर कारज परसंग ॥९॥ कृष्ण पक्ष के आदि हि, तीन दिना लौं भान । फिर चंदा फिर भान है, फिर चंदा फिर भान ॥१०॥ शुक्ल पक्ष के आदि हि, तीन दिना लौं चंद । फिर सूरज फिर चंद है, फिर सूरज फिर चंद ॥११॥ सूरज की तिथि में चले, जो सूरज परकास । सुख देही को करत है, लेही लाभ हुलास ॥१२॥ शुक्ल पक्ष चंदा चले, परिवा लेहु विचार । फल आनंद मंगल करे, देही को सुख सार ॥१३॥ कृष्ण पक्ष तिथि में चलै, जो परिवा को चंद । होय क्लेश पीड़ा कछु, हानि ताप के द्वंद ॥१४॥ शुक्ल पक्ष तिथि में चलै, जो परिवा को भान । होय क्लेश पीडा कछु, की दुख कि कछु हान ॥१५॥ प्रश्न विचार । ऊपर बाँयें सामने, सुर बाँयें के संग । जो पूछ ससि योग में, तो नीको परसंग ॥१६॥ नीचे पीछे दाहिने, स्वर सूरज को राज । जो कोइ पूछ आयके, तो समुझो शुभ काज ॥१७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय। ऊंचे सनमुख बामही, चंद्र करै परकास । जो कोइ पूछे आय करि, तो पावे सुख वास ॥१८॥ दहिने स्वर के चलत ही, पूछ बाँयें अंग।। शुक्ल पक्ष नहिं वार है, तो निष्फल परसंग ॥१९॥ पूछ बाँयें आय के, बेठे दहिनी ओर । चंद चले सूरज नहीं, तिन कारज विधकोर ॥२०॥ जो कोइ पूछे आय के, बैठे दहिने हात । लगन वार अरु तिथि मिले, शुभ कारज है जात ॥२१॥ जो चंदा में स्वर चलै, बाँये पूछ काज । तिथि अक्षर अरु वार मिले, सफल काज है साज ॥२२॥ जो सूरज में स्वर चलै, कहै दाहिने आय । लगन वार अरु तिथि मिले, तो कारज है जाय ॥२३॥ सात पांच नौ तीन गये, पंद्रह और पचीस । कार्य वचन अक्षर गिने, भानु जोग को ईस ॥२४॥ चार आठ द्वादश गिनै, चौदा सोलह मीत । चंद जोग को मिलत है, कहैं कबीर जगजीत ॥२५॥ लग्न परीक्षा। करक मेष तूला मकर, चारों चढती राशि । सूरज को चारों मिले, चर कारज परकाश ॥२६॥ मीन मिथुन कन्या कही, और हु चौथी धंन । नष्ट काज को सुषमना, मुरली सुर रुनझुन ॥२७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] ज्ञान स्वरोदय। वृश्चिक सिंह वृष कुंभ पुनि, बाँयें स्वर के संग । चंद्र योग को मिलत हैं, थिर कारज परसंग ॥२८॥ तत्त्व परीक्षा । चित अपनो अस्थिर करै, नसिका आगे नैन । श्वासा देखै दृष्टि सों, तब पावे सुख चैन ॥२९॥ पांच घडी पांचों चले, अपनी अपनी चार ॥ पांच तत्व चलते मिले, स्वर विच लेहु निहार ॥३०॥ धरती अरु आकाश है, और तीसरो पौन । पानी पावक पांच ये, करे श्वास में गौन ॥३१।। पृथ्वी तत्त सोही चले, अरु पीरो रंग देख । द्वादश आंगुल श्वास में, सुरति निरति करि देख ॥३२॥ ऊपर को पावक चले, लाल रंग है भेष । चार हि आंगुल श्वास में, कहैं कबीर विशेष ॥३३॥ नीचे को पानी चले, श्वेत रंग है तास । सोलह आंगुल श्वास में, होय भूप अभ्यास ॥३४॥ हरो रंग है वायु को, तिरछा चालै सोय । आठ हि आंगुल श्वास में, रनजित निरमल जोय ॥३५॥ स्वर दोनों पूरन चले, बाहिर नहि परकास । श्याम रंग है तासको, सोई तत्त्व अकास ॥३६॥ जल पृथ्वी के योग में, जो कोइ पूछे बात । ससि घर में जो स्वर चलै, कहु कारज व्है जात ॥३७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय | [ ८ ] सोय । पावक अरु आकाश पुनि, बायक लीजै जो कोई पूछै आयके, शुभ कारज नहि होय ||३८|| नाँहि । की विधि जल पृथ्वी थिर काज को, चर कारज को अग्नि वायु चर कार्य को, दहिने स्वर के रोगी की पूछे कोर, बैठे चंद धरती वायु स्वर चलें, मरे नहीं रोगी को परसंग जो, बाँये चंद बंध सूरज चलै, रोगी बहते स्वर से आयके, शून्य ओर जो पूछे परसंग वह, रोगी शून्य ओर से आय के, पूछै बहते तो निश्चय करि जानिये, रोगी को नहि श्वास । नास ||४३|| शून्य ओर सों आय के, पूछै पंख । जेते कारज जगत के, सो सब सफल असंख ||४४ || बहते स्वर सों आय के, जो पूछे जेते कारज जगत के उलट होय बाँये स्वर कै दाहिने, जो कोइ पूरन पूछै पूरन ओर ही, कारज पूरन संक्रान्ति लग्न | सोय । वर एक को फल कहूं, तत मित जानै काल समय सोई लखै, बुरो भलो नग होय ॥४७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com पूछै जीवै जो नहि बहते माँहि ॥ ३९ ॥ ओर । कोर ॥४०॥ आय । नाँय ॥ ४१ ॥ जाय । ठहराय || ४२ ॥ शुन ओर । विधि कोर ||४५ || होय । सोय ||४६ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय | [ ९ ] संक्रान्ती पुनि मेप विचारो, ता दिन लग्न सु घरी निहारो ॥ तब ही स्वर में करहु विचारा, चले कौन सो तत्त निहारा ।। जो बाँयें स्वर पृथ्वी होई, नीको तत्त्व कहावै सोई ॥ देश वृद्धि औ समय बतावै, प्रजा सुखी औ मेह बरषावै ॥ चारो बहुत ढोर को निपजे, नरदेही को सुख बहु उपजै ॥ जल चालै बांयें. स्वर मांहीं, धरति फलै औ मेह बरषाहीं ॥ आनंद मंगल सों जग रहै, जु आब तत्त्व चंदा में बहै || जल धरती दोनों शुभ भाई, सत्य कबीर रनजीत बताई || जल धरती को भेद है, धर्मनि विचार | अग्नि वायु अरु नाम को, अबही करहु तीन तत्व का करहु विचारा, स्वर में जाका भेद निहारा । लगे मेष संक्रान्ती जबही, लगती घरी विचारे तबही ॥ अग्नि तत्व जो स्वर में चाले, रोग दोष में परजा हालै ॥ पडै काल थोडा सा वरषै, देश भंग जो पावक दर || वायु तत्व चालै स्वर संगा, जग में मान होय कछु दंगा || अर्ध काल थोडा सा बरर्ष, वायु तत्त्व जो स्वर में तत्त्व अकास चलै स्वर दोई, मेह न वर अन्न न पडे काल तृण उपजै नाह, तच्व आकाश होय स्वर मांहीं ॥ करहु पसार ॥ ४८ ॥ दरसै || होई ॥ चैत रु महिना माघ में, जबही शुक्लपक्ष ता दिन लगे, प्रात भोरहि परिवा को लखै, पृथ्वी होय होय समय परजा सुखी, राजा सुखी होय | जोय ॥ ४९ ॥ परिवा श्वास में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अस्थान । निदान ॥ ५० ॥ www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय। [१०] नीर चलै जो चंद में, होय समयकी जीत । मेह वरपै परजा सुखी, संवत नीको मीत ॥५१॥ पृथ्वी पानी समान है, होवे चंद अस्थान | दहिने स्वरमें जो चलै, समयो समदम जान ॥५२॥ भोरही सुषमना चले, राज होय उतपात । देखन हारा विनसही, और काल परजात ॥५३॥ राज होय उतपात पुनि, पडे काल विश्वास । मेह नहीं परजा दुखी, होवै तत्त्व अकास ॥५४॥ श्वासा में पावक चलै, पडै काल जब जान । होय रोग परजा दुखी, घटै राज को मान ॥५५॥ भय क्लेश व्है देश में, विग्रह फल जोवंत । पडै काल परजा दुखी, होय वायु को तंत ॥५६॥ संक्रान्ती और चैत को, दीन्हो भेद बताय । जगत काज अबकहत हूं, चंद सुरजको न्याय ।।५७।। चंद्रयोग के कार्य। योगाभ्यास कीजिये मीता, औषधि वाडी कीजै प्रीता ॥ दीक्षा मंत्र बनिज बियाजा, चंद्रयोग थिर बैठे राजा ॥ चंद्रयोग में अस्थिर जानो, थिर कारज सबही पहिचानो ॥ करै हवेली छपर छवावे, बाग बगीचा गुफा बनावै ॥ हाकिम जाय कोट पर चढ़, चंद्रयोग आसन पग धेरै ॥ सत्य कबीर यह खोज बतावै, चंद्रयोग थिर काज कहावै ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] ज्ञान स्वरोदय। ब्याह दान तीरथ जो करै, भूषन पहिरे घर पग धरै ।। बांयें स्वरमें यह सब कीजै, पोथी पुस्तक जो लिखि लीजै ॥ साखी-बांये स्वर के काज यह, सो मैं दिये बताय । दहिने स्वरके कहत हूं, ज्ञान स्वरोदय मांय ॥५८॥ सूर्ययोग के कार्य। जो खांडा कर लिया चाहै, जाके वैरी ऊपर बाहै । युद्ध बाद रन जीतै सोई, दहिने स्वर में चाले कोई ॥ भोजन करे करे अस्नाना, मैथुन कर्म भानु परधाना ॥ यह लेखै कीजै व्यवहारा, गज घोडा वाहन हथियारा ॥ विद्या पढे नहि योग अराधे, मंत्र सिद्धि नहि ध्यान अराधे ।। वैरी भवन गवन जो कीजै, और काहु को ऋण जो दीजै ॥ ऋण काहू पै जो तूं मांग, विष अरु भूत उतारन लागै ॥ सत्य कबीर जगजीत विचारी, यह चर कर्म भानु की लारी ॥ गमन परीक्षा। चर कारज को भान है, थिर कारज को चंद । सुषमन चलत न चालिये, होय तह कछु दंद ॥५९॥ गांव परगना खेत पुनि, इधर उधर जो मीत । सुषमन चलत न चालिये, कहैं कबीर जग जीत ॥६०॥ छिन बांयें छिन दाहिने, सोई सुषमन जान । ढील लगे वैरी मिले, होय काज की हान ॥६१।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय। [१२] होय कलेश पीडा कछु, जो कहे कोई जाय । सुपमन चलत न चालिये, कहैं कबीर समुझाय ॥६२॥ योग करो सुषमन चलै, की आतम को ध्यान । और काज जो कोइ करै, तो आवै कछु हान ॥६३॥ उत्तर पूरब मत चले, बांये स्वर परकास । हानि होय बहुरै नहीं, नहि आवन की आस ॥६४॥ दहिने चलत न चालिये, दक्षिण पश्चिम जान । जो जावै बहुरै नहीं, होय तहँ कछु हान ॥६५॥ दहिने स्वर में चालिये, उत्तर पूरव राज । सुख संपति आनंद करे, सबै होय शुभ काज ॥६६॥ बांयें स्वर के चलत ही, दक्षिण पश्चिम देश । फल आनंद मंगल करै, जो जावै परदेश ॥६७।। दहिने सूरज बहि चले, दहिनो पग जु होय । बांये स्वर में चालिये, वामा पग धर जोय ॥६८॥ वामा पग पहिले धरे, होय चंद के चार । बांयें सुर में तीन डग, दहिना पहिले धार ॥६९॥ दहिने स्वर में चलत ही, दहिने डग भर तीन । बांचे स्वर में चार डग, बांयें कर परवीन ||७०॥ दहिने सेती आय कर, बांयें पूछ कोय । जो बांया स्वर बंध है, सुफल काज नहि होय ॥७१॥ बांयें स्वर ते आय के, दहिने पूछ कोय । भानु बंध चंदा चलै, तबही काज नसाय ।।७२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] कारज जो दहिना स्वर बंध है, तेज वचन वासों कहो, मनसा जब स्वर भीतर को लै, कारज तासों यह वायक कहो, मनसा पूछे पूरन पूछै पूरन पूछै जो दहिनो स्वर बंध है, कारज जो बंध बांयो सूर है, मनसा जव स्वर बाहिर को चलै, तब कोई पूछे वाको ऐसा भाषिये, नहि कारज विधि पूरन पूछै 'चंद चलावै दिवसकूं, रात चलावै पीवैं नित ही साधन जो करै, उमर पांच घडी पांचों चलै, सोई दश श्वासा सुषमन चले, ताहि बांयें करवट सोइये, बांयें स्वर जल दहिने स्वर भोजन करे, तब सुख पावै बायें स्वर भोजन करे, दहिने दिन दश रोगी सो करै, आवै दहिने स्वर झाडे फिरै, बांयँ जुगती काया साधिये, दीन्हा आठ पहर दहिनो चलै, बदले तीन वरस काया रहै, जीव करे सोलह पहर जबही चले, श्वासा युगल वर्ष काया रहै, पीछे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat होय दहिनो विचारो रोग लँगूसे भेद ज्ञान स्वरोदय | कोय | | होय ॥७३॥ नाहीं फिर पिंगला रहनन कोय | होय ॥७४॥ कोय । होय ||७५ || तोय | होय ॥ ७६ ॥ सूर भरपूर ||७७|| होय । लोय ॥ ७८ ॥ पीव । जीव ॥ ७९ ॥ नीर । शरीर ॥८०॥ गौन ॥ ८२ ॥ मांहि । नांहि ॥ ८३ ॥ www.umaragyanbhandar.com काय । बताय ॥ ८१ ॥ पौन । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय | [ २४ ] r तीन रात और तीन दिन, चालै सात वर्ष काया रहै, पीछे पांच रात औ पांच दिना, चालै संवत्सर काया रहै, पीछे दहिनो है है दहिनो दहिनो व्है है भानुकी जाय तन पंद्रह दिन निमदिन चलै, श्वास आयु जान षमास की, जीव सोलह दिन निशदिन चलै, श्वास भानुकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat श्वास | नास ॥८४॥ श्वास | नास ॥ ८५ ॥ ओर । छोर || ८६|| दिन तन इक आयु जान एक मास की, जीव जाय बीस दिन अरु रैन को, रवि चालै तीन मास काया रहै, फिर हैं हैं जम एक मास जो रैनदिन भान दाहिने सत्य कबीर यों कहत हैं, नर जीवें दिन नाडी जो सुषमन चलै, पांच पांच घडी सुषमन चले, तब ही नर मरि " घडी सुषमन चार में नहि चंदा नहि सूर है, नाहीं मुख सेती श्वासा चलै, घडी चार दिना कि आठ दिना, बारह के ऐसे जो चंदा चलै, आयु जान बढ़ रात को गवन बडि दिन को चंदा जो चलें, चलै तो निश्चय करि जानिये, प्राण रात चलै स्वर चंद्रमा, दिनको एक मास जो यौं चलै, छठये मासै काल ॥९४॥ सूरज भाल । www.umaragyanbhandar.com ओर । छोर || ८७|| सार । मार ||८८ || होय | दोय ॥ ८९ ॥ ठहराय । जाय ॥ ९० ॥ भाल | काल ॥ ९१ ॥ बीस । ईस ॥ ९२ ॥ सूर । दूर ॥ ९३ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] ज्ञान स्वरोदय । तीन रात औ तीन दिना, चलै तत्व आकाश । एक वरस काया रहै, फेर काल के पास ॥९५॥ नौ भृकुटि सात श्रवण, पांच तारको जान । तीन नाक अरु जीभ इक, काल भेद पहिचान ॥९६।। भेद गुरुसों पाइये, गुरु बिन लहै न ज्ञान । सत्य कबीर यों कहत है, धर्मनि सुनो सुजान ॥९७॥ जब साधू ऐसे लखै, छठे मास है काल । आगे ते साधन कर, चैठि गुफा ततकाल ।।९८|| ऊपर खेंचे ध्यान को, प्रान अपान मिलाय । उत्तम करै समाधि को, ताको काल न खाय ॥९९।। पवन पिये ज्वाला पचै, नाभि तले करै राह । मेरुदंड को फेरि के, वसै अमरपुर जाह ॥१००॥ जहां काल पहुंचे नहीं, जम की होय न त्रास । गगन मंडल में जायके, करो उनमुनी वास ॥१०॥ नहीं काल नहीं जाल है, छूटे सकल संताप । होय उनमुनी लीन मन, तहां विराजै आप ॥१०२॥ तीनों बंध लगाय के. पांचों वाय साध । सुषमन मारग व्है चलें, देखे खेल अगाध ॥१०३।। सुरति जाय शब्दहि मिलै, जहां होय मन लीन । खेचरिबंध लगाय करि, पुरुष आप परवीन ॥१०४॥ आसन पद्म लगाय करि, मूल कमल को बांध । मेरुदंड को फेरि करि, सुरति गगन को सांध ॥१०५।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय । [ १६ चंद्र सुरज दोउ सम करै, दृढ कर ध्यान लगाय । षट चक्रन को वेधि करि, शून्य शिखर को जाय ॥१०६।। डंगला पिंगला साधिके. सपमन में करै वास । परम ज्योति नहां झिलमिलै, पूजै मन विश्वास ॥१०७॥ जिन साधन आगे किया, तासों सब कुछ होय । जब चाहै जावै तहां, काल बचाव सोय ॥१०८॥ तरुन अवस्था योग करे, बैठ रहै मन जीत । काल बचाव साधको, अन्त समय जम जीत ।।१०९।। सदा आपमें लीन रहि, करि करि योगाभ्यास । आवत देख काल जब, गगन मंडल करै बास ॥११०॥ समय समय साधन कर, राखे प्राण चढाय । पूरा योगी जानिये, ताको काल न खाय ॥१११।। पहिले साधन ना कियो, गगन मंडल • जान । आवत देखै काल जब, कहा करै अज्ञान ॥११२।। योग ध्यान कीया नहि, तरुन अवस्था मीत । आवत देखें काल जब, कैसे के वे जीत ॥११३॥ काल जीत हंसा मिले, शून्य मंडल अस्थान । आगे जिन साधन किया, तरुन अवस्था जान ॥११४॥ कालअवधि बीत जब, भीत हि भीत समाय । योगी प्राण उतारही, लेहि समाधि लगाय ॥११५॥ काल जीति जगमें रहै, मृत्युक व्यापै नाँहि । दसों द्वार को फेरिके, जब चाहै तब जांहि ॥११६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] सूरज मंडल चीर के, योगी सत्य शब्द सोई लहै, कृष्ण पक्ष के मध्य ही, दक्षिणायन पावै पद राजा होय योगी काया छोडि है, राज पाय सतनाम भजै, पूरवली योग युक्ति पावै बहु, दूसर मुक्त उत्तरायण सूरज लखै, शुक्ल योगी काया त्याग ही, मुक्त होय बहुरै नहीं, बूंद समुद्र हि मिलि गई, दक्षिणायन सूरज रहैं, फिर उतरायन आय के, दोनों स्वरको साधिके, श्वासामें भेद स्वरोदय पाय के, संग्राम जो रन ऊपर जाईए, जीत होय हारे नहीं, दुर्जन को स्वर दाहिनो, जो कोई पहिले चढि सकै, सुषमन चलत न चालिये, सीस कटाय के भाजि हो, ज्ञान स्वरोदय । त्यागे प्राण । निखान ॥ ११७ ॥ में भान । पक्ष के यामें संशय नांहि ॥ १२० ॥ जनम खोज मिटि जाय । दूजा नहि ठहराय ॥१२१॥ रहै मास षट जान । रहै मास पट मान || १२२ || मन राख । तत्र काहूं सों भाख ॥ १२३॥ परीक्षा । निदान ॥ ११८ ॥ पहिचान | निधान ॥ ११९ ॥ माँहि । २ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat दहिने स्वर परकास : करै शत्रु को नास ॥ १२४॥ अपनो दहिनो खेत जीत है होय | सोय ॥ १२५ ॥ युद्ध करन को मीत । दुर्जन की होय जीत ॥ १२६॥ www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय | [ १८ ] जल पृथ्वी में स्वर चले. सुफल काज दोनों करें, जो बाँयें पृथ्वी चलै, आप पैठि दल पेलिये, सुनो कान दे वीर । की पृथ्वी की नीर ॥१२७॥ चढि आवै कोइ भूप । बात कहत हूं वायु तत्र जो यह वर्जित हौं कहूँ जाय जो सूरज को दिन होय ॥ १३० ॥ पावक अरु आकाश तत, कछु काम ना कीजिये, दहिने स्वर के चलत ही, तीन पांव आगे धेरै, बांयें स्वरके चलत ही, वाम पाँव धर चार । वात्रा पग आगै धेरै, होय चंद को वार ॥१३१॥ दहिने स्वरके चलत ही, दहिन पाँच घर तीन । बांयें स्वर के चार हैं, बाँये केर प्रवीन ॥ १३२ ॥ गर्भ परीक्षा । गूप ॥ १२८ ॥ होय । तोय ॥ १२९ ॥ कोय । । गभवती के गर्भ की, जो कोइ पूछे आय । बालक है की बालकी, जी की मरि जाय ॥ १३३ ॥ दहिने स्वर चलत ही, जो कोइ पूछे आय । वाको बाँया स्वर चलें, बालक व्है मरि जाय ॥ १३४ ॥ दहिने स्वर के चलत ही, जो कोइ पूछे बैन | वाको दहिना स्वर चलें, बालक होय सुख चैन ॥ १३५ ॥ बाँयें स्वरके चलत ही, आय कहै जो कोय | लडकी होय जी नहीं, वाको दहिनो होय ॥ १३६ ॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय । बाँयें स्वर के चलत ही, जो कोइ पूछ बात । वाको बाँयों स्वर चलै, बेटी होय, कुसलात ॥१३७।। दोनों स्वर सुषमन चले. कहै गर्भ की आय । गर्भ गिरै माता दुखी, कष्ट होय मरि जाय ॥१३८॥ तत्व अकाशू चलत ही, जो कोइ पूछ बात । छाया है बाडै नहीं, पेट हि मांहि बिलात ॥१३९॥ जो कोइ पूछ आय के, याको गर्भ कि नांहि । दहिनो वाको स्वर चले, साधे श्वासा मांहि ॥१४०।। बंध हि और जो आय के, हित कर पूछे कोय । बंध हि और सगर्भ ये, यहते स्वर नहि होय ॥१४१।। चंद्र और जो आय के, तब पूछे जो कोय । चंद्र और तो गरभ है, बहता स्वर जो होय ॥१४२॥ अथ श्वासा परीक्षा । इंगला पिंगला सुषमना, नाडी कहिये तीन । सूरज चंद्र विचार के, रहै श्वास लौ लीन ॥१४३॥ जैसे कछुआ समिटि के, आप हि मांहि समाय । ऐसे ज्ञानी श्वास में, रहे सुरति लौ लाय ॥१४४॥ श्वासा आप विचार के, आयु जान नर लोय । बीत जाय श्वासा जबै, तबही मृत्युक होय ॥१४५।। इक्कीस हजार छः सौ चले, रात दिवस जो श्वास । बीसा सौ जीवै वरष, होय अपन पौ नास ॥१४६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय [२०] अकाल मृत्यु जो कोई मरें, होय भक्त के भूत । बीत जाय श्वामा जौ, तब आवे जम दूत || १४७॥ चारौं संजम साधि के, श्वासा युक्ति मिलाय । अकाल मृत्यु आवै नहीं, जीवें पूरी आय ॥ १४८ ॥ सूक्ष्म भोजन कीजिये, रहिये रहनी सोय । जल थोडासा पीजिये, बहुत बोल मत खोय ॥ १४९ ॥ मोक्ष मुक्ति फल चाहिये, तजो कामना काम । मन की इच्छा मेटिके, भजो सत्य निज नाम ॥ १५० ॥ सोरठा । देहाध्यास मिटाय मिटाय के पांचन के तज कर्म । आप हि आप समाय के छूटे झूठ भरम ॥ १५१ ॥ छूटे दृष्टि देह की, जैसी कहै तैसी रहै । सो तुम कूं कहि दीन, धर्मदास यह मुक्ति है ॥ १५२ ॥ 1 साखी । देह मरे जिव अमर है, पारब्रह्म है सोय । अज्ञानी भटकत फिरे, लखै सो ज्ञानी होय ॥ १५३॥ देह नहीं तो ब्रह्म है, अविनासी निरवान । नित न्यारो तूं देह सौं, देह कर्म सब जान ॥ १५४॥ डोलन बोलन सोवना, भोजन करन अहार । दुख सुख मैथुन रोग सब, गरमी सीत निहार ॥ १५५॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] ज्ञान स्वरोदय | जाति चरन कुल देह की, मूर्ति सूर्ति के नाम । उपजै विनसै देह सो, पांच तत्त्व को गाम ॥ १५६ ॥ पावक पानी वायु है, धरती और अकास । पांच पचीस गुन तीन में, आय कियो तहं वास ॥। १५७।। घट उपाधि सों जानिये, करत रहै उतपात । मोह माया लपटात ॥ १५८॥ नभ की इन्द्रिय कान । करि विचार पहिचान ॥ १५९ ॥ इन्द्रिय नैन । सुख चैन ॥ १६० ॥ काम क्रोध और लोभ है, जिभ्या इन्द्रिय नीर की, नासा इन्द्रिय धरनि की, त्वचा इन्द्रिय वायु की, पावक इनको साधे सिद्ध जो, पद पावै निद्रा भाइ आलस पुनि, भूख प्यास जो होय | सत्यकबीर पांचौ कहैं, अग्नि तच्च सो जोय ॥ १६१ ॥ रक्त पीत कफ तीसरो, बिंदु पसीना जान । कहैं कबीर प्रकृति अहै, पानी सो पहिचान || १६२ || हाड चाम नाडी कहूं, रोम और पुनि मांस । पृथ्वी की प्रकृति अहै, अंत सबन को नास ॥ १६३ ॥ | बल करना अरु धावना, प्रसरन करन संकोच । देह बढ़े सो जानिये, वायु तत्र है सोच ॥ १६४॥ काम क्रोध और लोभ है, मोह पुनि अहंकार | तव अकाश प्रकृति है, नित न्यारो तूं सार || १६५ || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय । पांच पर्चासौ एक है, इनको सकल मुभाव । निर्विकार तो ब्रह्म है, आप अपन में पाव ॥१६६॥ निर्विकार निर्लेप तूं, जानहु देह विकार । अपनी देह जानो मति, येहि ज्ञान ततसार ॥१६७॥ शस्त्र छेदी नहीं सकै, पावक सकै न जार । मरि मीटै सो तूं नहि, गुरु गम भेद निहार ॥१६८॥ आंख नाक जिभ्या कही, त्वचा जानिये कान । पांचौ इन्द्रिय ज्ञान की, जानै ज्ञान सुजान ॥१६९॥ गुदा लिग मुख तीसरा, हाथ पांव लखि लेह । पांचौ इन्द्रिय कर्म की, इनही में सब देह ॥१७०॥ पृथ्वी हिरदे स्थान है, गुदा जानिये द्वार । पीरो रंग पहिचानिये, पान खान आहार ॥१७१॥ तपत मध्य पावक बसै, नैन जानिये द्वार । लाल रंग है अग्नि को, लोभ मोह अहंकार ॥१७२॥ जल को बासो भाल है, लिंग जानिये द्वार । मैथुन कर्म अहार है, धोरो रंग निहार ॥१७३।। वायु नाभि में बसत है, नास जानिये द्वार । हरो रंग है वायु को, गंध सुगंध अहार ॥१७४॥ अकास सीस में बसत है, श्रवण जानिये द्वार । शब्द हि शब्द अहार है, ताको श्याम विचार ॥१७५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] ज्ञान स्वरोदय । कारण सूक्षम लिंग है, ऐसे कहि असफल । शरीर चार सो जानिये, मैं मेरी जड़ मूल ।।१७६।। चित बुधि मन अहंकार जो, अन्तःकरन जु च र । ज्ञान सबन सो जानिये, कर कर तत्त्व विचार ।।१७७।। शब्द स्पर्श अरु रूप रस, कहिये गंध सरूप । देह कर्म औ वासना, एक हि है निज रूप ।।१७८।। निराकार है आदि तूं , अचल निवासी जीव । निरालंब निरबान तूं, अज अविनासी सीव ॥१७९।। बांया कोठा अग्निका, दहिना जल परकास । मन हिरदे अस्थान है, पवन नाभि में वास ॥१८॥ मूल कमल दल चार को, लाल पंखुरी रंग । गिरिजा सुत वासो कियो, छसौ जाप इक संग ॥१८१।। कँवल षटू दल रंग पिरो, नाभी तले संभाल । षट् सहस्र तहां जाप है, ब्रह्म सावित्री नाल ॥१८२।। अष्ट पंखुरी कँवल है, लील बरन सो नाल । हरि लक्षमी वासो कियो, षट् सहस्र जप माल ॥१८३॥ अनहद चक्र हिरदै बसै, द्वादश दल अरु श्वेत । षट् सहस्र तहां जाप है, सिव शक्ति जहां हेत ॥१८४॥ षोडश दल को कँवल है, कंठ वासना रूप । जाप सहस्र तहवां जप, भेद लहै अति गूप ॥१८५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय। [२४] अग्नि चक्र दो दल कमल, त्रिकुटी ध्यान अनूप । जाप सहस्र तहवां जपै, पावै ज्योति सरूप ॥१८६॥ सहस्र दलन को कमल है, गगन मंडल में वास । जाप सहस्र तहवां जौ, तेज पुंज परकास ॥१८७॥ योगयुक्ति करिखोजिले, सुरति निरति करि चीन्ह । दश प्रकार अनहद बजे, होय जहां लौलीन्ह ॥१८८॥ तीन बंध नौ नाडिका, दसौ वायु को जान । प्रान अपान समान है, अरु कहिये ऊदान ॥१८९॥ व्यान बंध अरु किरकिरा, कूर्म वायु को जीत । नाग धनंजय देवदत, दसौ वायु है मीत ॥१९॥ दसौं द्वार को बंध करि, उत्तम नाड़ी तीन । इंगला पिंगला सुषमना, केलि करे परवीन ॥१९१॥ करते अरपन नाम को, तर गये पतित अनेक । अनहद धुनि के बीच में, देखा खेल अनेक ॥१९२॥ पूरक करै कुंभक करै, रेचक वायु उतार । ऐसे प्राणायाम कर, सूक्षम कीजै हार ॥१९३॥ धरती बंध लगाय के, दसौं बायु को रोक । मस्तक वायु चढाय के, जाय अमर पुर लोक ॥१९४॥ पांचौं मुद्रा साधि के, पावै घट का भेद । नाड़ी शिखर चढाय के, पट चक्रन को छेद ॥१९५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] ज्ञान स्वरोदय । योग युक्ति सो कीजिये, कर अजपा को जाप । आपु हि आप विचारिके, परम तत्व को ज्ञाप ॥१९६॥ सूद्र वैश्य यह शरीर है, ब्राह्मण अरु रजपूत । बूढा बालक तरुन ना, सदा ब्रह्म इक रूप ॥१९७॥ काया माया जानिये, जीव ब्रह्म है मीत । काया छूटे सुरती मिटे, परम तत्व में नीत ॥१९८॥ पाप पुण्य की आस तजो, तजहू मन असथाप । काया मांहि विकार तजु, जपहू अजपा जाप ॥१९९॥ आप भुलाना आप में, बंधा आपहि आप । जाको तूं ढूंढत फिरै, सो तूं आपो आप ॥२००॥ इच्छा देह विसारि के, क्यौं नहि है निर्वास । तो तूं जीवन्मुक्त है, तजो मुक्ति की वास ॥२०॥ पवन भये आकास ते, अग्नि वायु सों होय । पावक सों पानी भयो, पानी धरती सोय ॥२०२॥ धरती मीठो स्वाद है, खार स्वाद सो नीर । अग्नि चरपरो स्वाद है, खाटो स्वाद समीर ॥२०३।। खाटो मीठो चरपरो, खारे प्रेम न होय । तबही तत्त्व विचारिये, चार तत्त्व में सोय ॥२०४॥ स्वाद भिन्न अरु रंग है, और बताई चाल । पांच तत्व की परख है, सिध पावै ततकाल ॥२०५।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरोदय। [२६) त्रिकोनै पावक चले, धरती तो चौरंग। शून्य स्वभाव अकाश को, पानी लंबो संग ॥२०६।। अग्नि तत्व गुण तामसी, रजगुन समझो वायु । पृथ्वी नीर सतो गुनी, नभ को अस्थिर भाय ॥२०७।। नीर चले जब श्वास में, रन ऊपर चढ मीत । वैरी को सिर काटिके, घर आवै रन जीत ॥२०८॥ पृथ्वी के परकास में, युद्ध करै जो कोय । दो दल रहे बराबरी, हार वायु में होय ॥२०९॥ अग्नि तत्व के चलत ही, युद्ध करने मति जाय । हार होय जीते नहीं, अरु आवे तन घाय ॥२१०॥ तत्त्व अकास में जो चले, उहां रहै जो जाय । रन मांहीं काया तजे, घर नहीं देखे आय ॥२११।। जल पृथ्वी के योग में, गर्भ रहै जो पूत । वायु तत्व में छोकरी, और सूत को सूत ॥२१२।। पृथ्वी तत्व में गर्भ जो, बालक होय सो भूप । धनवंता सो जानिये, सुन्दर होय सरूप ॥२१३।। अग्नि तत्त्व के चलत ही, गर्भ हि में रहि जाय । गर्भ गिर माता दुखी, होते ही मरि जाय ।।२१४॥ वायु तत्त्व सुर दाहिनो, करै पुरुष जो भोग । गर्भ रहै जो ता समय, तन आवै कछु रोग ॥२१५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] ज्ञान स्वरोदय । आसन संजम साध के, दृष्टि श्वास के मांहि । तत्व भेद तब ही मिले, विन साधे कछु नाहि ॥२१६॥ आसन पद्म लगाय के, एक बरन नित साध। बैठे सोये डोलते, श्वासा हिरदै राध ।।२१७।। नाम नासिका मांहि करि, सोहं सोहं जाप । सोहं अजपा जाप है, छूटे पुन औ पाप ॥२१८॥ मेद स्वरोदय बहुत है, सूक्षम कहि समुझाय । ताको सुमति विचार ले, अपने मन चित लाय ॥२१९।। धरनि टरै गिरिवर टरै, धूव टरै सुन मीत । ज्ञान स्वरोदय ना टरै, कहैं कबीर जग जीन ।२२०।। योग युक्ति सों भक्ति करि ब्रह्मज्ञान दृढ होय । आतम तत्त्व विचारि के, अजपा श्वास समोय ।।२२१।। ज्ञान स्वरोदय सार है, सतगुरु कहि समुझाय । जो जन ज्ञानी चित धरै, ब्रह्म रूप को पाय ॥२२२॥ काया को निज भेद है, धर्मनि सुनो सुजान । ज्ञान स्वरोदय खोजि के, येहि बचन परमान ॥२२३॥ सब योगन को योग है, सब ग्रंथन को मीत । सब योगन को ज्ञान है, सत्य कबीर यह गीत ॥२२४॥ इति सद्गुरु कबीर साहिब का ज्ञान स्वरोदय संपूर्ण ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवन स्वरोदय। -~*~श्रीसतगुरु तुव चरण पर, शीश धरों शत बार । पवनसार वर्णन करों, मोतिदास निरधार ॥१॥ गुरुगम भेद विचारके, ग्रन्थन का मत देख । मोतिदास संक्षेप कहि, सारंसार विशेष ॥ २ ॥ नाड़ी चारों (सब) आठ सत, और बहत्तर हजार । सबको मूल जो नामि है, मोतिदास निरधार ।। ३ ।। सब नाड़िन में मुख्य दस, दस में तीन विचार । इडा पिंगला सुषमना, मोतिदास त्रय सार ।। ४ ॥ डेरा इड़ा सु चंद सुर, सोई यमुना जान । दहिनो पिंगला सूर्य सुर, गंगा ताको मान ॥ ५॥ दोनौ स्वर सम सरस्वती, सुपमन कहिये सोय । यहै त्रिवेणी स्पृष्टिये, सर्व पाप क्षय होय ॥६॥ नाभि कमलदल अष्ट है, पांच तत्व तहँ बास । पृथ्वी जल अरु अग्नि है, वायुतत्त्व आकाश ।। ७॥ फिरत जीव सब दलनपर, दलपति भिन्न सुभाव । मोतिदास वर्णन करों, सुनो शिष्य सतभाव ॥ ८॥ पूर्व दलनपर ज्ञान मत, अग्नि जु शुद्ध सुभाय । क्रोध करत जिव जानिये, दक्षिण दल पर जाय ॥९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९] पवन स्वरोदय । नैऋत्य दल पर जाय जिव, बुद्धि विवेक प्रकास । पश्चिम दल पर जातहीं, हांसी मोद हुलास ॥१०॥ देश दिशंतर मन उडे, वायव्य दल जिव जान । सम सुभाव जिव करत हैं, उत्तर दल पर आन ॥११॥ राजस भोग 'जु कामना, जिव कर दल ईशान । इक दलते दूजे (दल) गवन, तब जिव सुमरण ध्यान।।१२॥ होय उदय सूरज जबे, जीव पूर्व दल जाय । पहिले तरें ते ऊपरे, फेर तरे जो आय ।।१३।। श्वासा तीस आकाश की, साठ बायुकी जान । नब्बे श्वास जो अग्निकी, जल बीसा सौ मान ॥१४॥ पृथ्वी तत्व की डेढ सौ, श्वासा को परमान । साढि चार सौ श्वास पुनि, पांच तत्त्वकी जान ।।१५।। इक दल पर दो बार जिव, उतर चढे फिर आय । श्वासा नौ सौ होत हैं, मोतिदास समुझाय ॥१६।। यहि विधि आठउ दलन पर, फेरी जीव कराय। सात सहस दो सौ अधिक, श्वासा चलती जाय ॥१७॥ आठ जाम दल आठ पै, तीन बखत जिव जात । इकिस सहस्र छै सौ अधिक, श्वास चलत दिनरात ॥१८॥ नित श्वासा इतनी चले, बढती चले न कोय । बीसा सौ वर्षे जिये, साध साधना लोय ॥१९॥ क्रौड ब्यानवे चलत हैं, उम्मर भर की श्वास । गुरुमुख सुन लखि शास्त्रको, बरणी मोतीदास ॥२०॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवन स्वरोदय । [३०] अकाल मृत्यु तन छूटही, भूत होय भरमंत । ताते साधो साधना, कहत वचन श्रुति संत ॥२१॥ थिर द्वादश मग अष्टदश, बत्तिस सयन मँझार । भोग करत चौसठ चले, मोतिदास निरधार ॥२२॥ ताते उम्मर घटत है, अल्प मीच बिच होय । मन चाहे तबलग जिये, साधन करे जु कोय ॥२३॥ डेरो स्वर दिन को चले, दहिनो रात चलाव । देह रोग व्यापै नहीं, जीवे पूरी आव ॥२४।। झाडे अरु अस्नान पुनि, भोजन कर परबीन । दहिने स्वरके काज ये, मोतिदास कह दीन्ह ॥२५॥ जल पीवन पेशाब पुनि, बांयें स्वर के मांहिं । मोतिदास या रहन सो, देहरोग होय नाहिं ॥२६॥ शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, भोरही चंद्र चलाव । आगे डेरी चार डग, पंद्रह दिन सुख पाव ॥२७॥ कृष्णपक्ष परिवा लगे, सूरज लीजे प्रात । तीन पांव दहिने धरे, सुख पंद्रह दिन जात ॥२८॥ चंद्रवार को प्रातहीं, उठत चंद्र स्वर लेय । बांड चार डग पहिल धरि, निशिवासर सुख देय ॥२९।। सूरज दिन को भोरहीं, उठतन सूर्य चलाव । पहिले तिन पग दाहिने, रातदिना सुख पाव ॥३०॥ ईतवार मंगल कहों, और शनीचर वार । सूरजके दिन तीन ये, मोतिदास निरधार ॥३१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] पवन स्वरोदय । सोमवार बुध शुक्र दिन, और बृहस्पति पेख । चंद्रयोग में सुफल ये, मोतीदास विशेष ॥३२॥ परे बृहस्पति चंद्र सुर, तिथि चंदा परमान । सूरज स्वरमें शनि रवि, मंगल भोरहि भान ॥३३॥ शुक्ल पक्ष परिवां लगे, तिथि चारों परमान । फिर रवि चंदा फिर रवि, फिर रवि इंदू जान ॥३४॥ कृष्णपक्ष के आदि में, तीन दिना रवि लेख । पुनि चंदा पुनि रवि सही, पुनि चंदा रवि लेख ॥३५॥ सूरज दिन चंदा बहै, चंदा दिन रवि होय । ता दिन विन लागे कछु, हानि ताप दुख होय ॥३६॥ परिवाँ चंदा को लगे, सूरज पावे प्रात । हानि ताप मृत्यु करे, मत जानो कुशलात ॥३७॥ सूरज की परिवाँ जबे, चंद उदय जो होय । विन लगे तन मन दहे, शुभ कारज मति जोय ॥३८॥ ताते साधन कीजिये, ले गुरुसे उपदेश । तन मन आनंद सो रहे, छूटे विघ्न कलेश ॥३९॥ रुई गदेला मांझ की, बत्ती जबर करंद । दिनको सूरज बंद कर, रात चंद्र कर बंद ॥४०॥ गमन दाहिने स्वर करो, पूरब उत्तर देश । पश्चिम दक्षिण चंद्र स्वर, सुख संपत्ति फल बेस ॥४१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवन स्वरोदय | [ ३२ ] देह को पूरब उत्तर चंद्र स्वर, पश्चिम दक्षिण होगी हानी ताप मृत्यु, जाय बस्तर भूषण पहिरिये, ब्याह दान कर राजतिलक चेला करो, बाँयें स्वरकी घरकी नींव जु डारिये, रहिये नव घर मांहिं । वोये नाज जु खेतमें, चंद्रयोग शुभ आहिं || ४४ || औषधि दीजे योग कर, बूटि कल्प कर कोय । ताल कूप खोदे कहूँ, चंद्रयोग मंत्र साध पोथी लिखो, विद्या थिर कारज जेते सकल, चंद्र योग परसन भोजन मैथुना, युद्ध बाद कुंजल वाहन काज दे, दहिने स्वर के ले बैरी घर जो जाइये, ॠण राज दरशको गौन कर, दहिने उच्चाटन अरु वशिकरन, मारन दहिने स्वर के काज ये, आकर्षन शुभ और के मांगन जो स्वरको साधे जो ध्यान होय नाव बैठ जल पैरिये, शास्त्र शिष्य कर चर कारज जेते सकल, दहिने सुषमन चलत न चालिये, योग और कार्य बरजत सकल, करे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat स्वरके सूर | नूर ॥४२॥ कर प्रीति । नीति ॥ ४३ ॥ होय ॥ ४५ ॥ पढ़ाव | भाव ॥ ४६ ॥ सैन | ऐन ॥ ५० ॥ मीत । विपरीत ॥ ५१ ॥ www.umaragyanbhandar.com ब्याज | | काज ॥४७॥ जाय । लाय ॥ ४८ ॥ जंत्र | मंत्र ॥ ४९ ॥ || Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] पवन स्वरोदय । मैथुन भय श्रम मरत में, सुषमन वित्तम होय । सहज कबहुँ चाले नहीं, मोतीदास भल जोय ॥५२॥ चैत्र सुदी परिवा लगे, प्रात पृथ्वी जल देख । आसन पद्म लगाइये, पश्चिम मुख कर पेख ॥५३॥ बहु वरषा रु प्रजा सुखी, अरु सुरभिक्ष प्रधान । दहिने पृथ्वी जल चले, मध्यम साल बखान ॥५४॥ अग्नितत्व ता दिन चले, बरषा थोरी होय । आग लगे मरही पड़े, अन्नसु महँगा जोय ॥५५॥ बायु तत्व आँधी करे, वरषा सूक्षम लाग। मूसा टिड्डी आवहीं, वायु पीर सीतांग ॥५६॥ जग में विग्रह होयमी, अन तृण थोरा जान । संवत भर फल यों करे, मोतीदास बखान ।।५७।। तत्व अकाश बरषा नहीं, मरही काल परंत । सुषमन है आपुन मरे, परजा विघ्न अनंत ॥५८।। जोई परीक्षा चैत्र की, सोई मेष संक्रात । वायु अग्नि सो निष्ट हैं, जल पृथ्वी कुसलात ॥५९॥ पृथ्वी पीत रंग बैस है, आंगुर बारह जान । चिकनो मीठो स्वाद है, पूरब दिशा बखान ॥६०॥ विप्र वरण जल तत्व है, आंगुर सोरा जान । श्वेत रंग पश्चिम दिशा, खारो स्वाद बखान ॥६१।। अग्नि लाल रंग चरपरो, आंगुर चार प्रमान । बरन क्षत्री दक्षिण दिशा, मोतिदास पहिचान ॥६२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवन स्वरोदय । [३४] हरो वायु उत्तर दिशा, खाटो स्वाद विचार । आंगुर आठ शूद्र वरण, मोतिदास निरधार ॥६३।। दोई स्वर जो चलत हैं, बाहर कढ़ ना कोय । करुवा स्वाद कारों बरण, तत्व अकाश है सोय ॥६४॥ एतवार बुधवार के, भोर पृथ्वी ततराज । शुक्र मंगल प्रातही, अग्नि तत्वको साज ॥६५॥ वायु तत्व गुरुवार को, भोर ही राज करत ॥ सोमवारको प्रात जल, मोतिदास बरपंत ॥६६॥ भोर शनीचर के दिना, आवत तत्व अकाश । दूज वायु नीजे अग्नि, फिर जल पृथ्वी बास ॥६७।। जौन तत्व अरु जाहि दिन, भोर चलत है आय । एक तत्व इक २ घरी, स्वर महं राज कराय ॥६८॥ प्रश्न करे जो आयके, तबहीं तत्व विचार । पृथ्वी तत्वमें लाभ झर, जल जल्दी निरधार ॥६९॥ अग्नि तत्त्वमें हानि करु, निरफल कहो अकाश । पहल तत्वको समुझके, भाषो मोतीदास ॥७॥ (जो) कोई पूछे आयके, (पर)देश गये की बात । बेग आय जल तत्व कहो, पृथ्वी कहो कुशलात ॥७१।। वायु तत्व परदेश ते, गयो औरही देश । अग्नि तत्व बेजार कहु, अकाश तत्व मृतुजेश ॥७२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ ] पवन स्वरोदय । (जो) कोई पूछे आय के, रोगी को परसंग । बहते सुर जीवे कहो, शून्य दिशा मृतु भंग ॥७३॥ पूँछत में सुर बहत हो, तुरत सुन्न हो जाय । ईश्वर जो रक्षा करे, तौ रोगी मर जाय ॥७४॥ पूँछत में सुर बंद हो, हालहि पूरण होय । ईश्वर जो मारन चहे, रोगी जीवे सोय ॥७५।। चोरी वस्तु गई कळू, पूछ बहती श्वास । मिले बस्तु वासों कहो, बरणी मोतीदास ॥७६॥ बिषया जो विषहर डसो, बहते सुर पूछंत । बिष भुगती जीवे कहो, बँद सुर होय मरंत ॥७७॥ बहुत दिना ते खबर नहि, परदेशी की पाय । पूछे बहते सुर कुशल, विघ्न बंद सुर आय ॥७८॥ कोई पूछे आयके, गर्भवती की बात । बेटा होइ के छोकरी, मरे कि रह कुशलात ॥७९।। पूछत डेरो सुर चले, कन्या गर्भ बताव । दहिने सुरके चलतही, पुत्र होय सतभाव ।।८०॥ पूछत डेरी बगल हो, दहिनो सुर परकाश । पुत्र होय वाको कहो, माताको व्है नाश ।।८१।। प्रश्न करत जल तत्व हो, पुत्र गर्भ में जान । भूमि वायु कन्या सही, अग्नि गर्भ को हानि ।।८२॥ पूछत तत्व अकाश हो, मरो गर्भ में बाल । के माता को कष्ट हो, (के) रहे गर्भ में छाल ॥८३।। EEEEEEEEEEEEEEEEE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवन स्वरोदय। [३६J पूंछत में सुर दो बहे, गर्भ मांहि युग भाप । शून्य दिशा गर्भ शून्य कहु, मोतिदास अभिलाष ॥८४।। ऋतुवंती जो स्नान कर, पुष्य नक्षत्र जब आय । दहिने सुर त्रिय भोगई, बांझ पुत्र फल पाय ॥८५॥ बाये सुर रति कीजिये, तो कन्या होय बीर । जल पृथ्वी बीरज जमे, और न जामे नीर ॥८६॥ दहिनो सुर हो पुरुष को, डेरो सुर त्रिय देह । जल पृथ्वीमें रति करे, बांझ पुत्र फल लेह ।।८७।। निकसत श्वासा विज जमे, थोरी उम्मर होय । श्वास देहमें विज जमे, बडी आयु सुन लोय ॥८८॥ अकाश तत्व में बिज जमे, होता मरे बखान । वायु तच योगी कहो, की दिसंतरि जान ॥८९।। अग्नि तत्त्व रोगी सही, जीवे थोरी आव । नीर तत्त्व यश भोगिया, साहू पृथ्वी पाव ॥९०॥ युद्ध करन कोई चले, दहिनो सुर चहि बाज । बायें फौज दे शत्रुकी, लडे जीत शुभ काज ॥११॥ पक्ष वार तिथि सूर्य की, पृथ्वी तत्व ले मीत ।। दिशा सूर्य सुर दाहिनो, एक अनेकन जीत ॥१२॥ दोनों आनि जुरे जब, दहिनो सुर जब होय । जो कोई पहिले लडें, जीत तासुकी होय ॥९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] पवन स्वरोदय । जो चंदा सुर चलत हो, तो निज गहु तलवार । आवन दीजे शत्रुको, हो जगमें यश सार ॥९४॥ दूर युद्ध को चंद्र सुर, दिशा पक्ष तिथि वार । मोतिदास जल तत्त्व ले, डेरो डग धर वार ॥१५॥ खेत मांझ जब जाइये, सूरज सुर ले बीर । जीत होय हारे नहीं, रहे फौज में मीर ॥१६॥ चलते सुर दिशि आयके, पूले चलती श्वास । पूछनवारो जीति है, होय शत्रु का नाश ॥९७॥ बंद सूर दिशि आयके, बंदइ सुर पूछंत । पूछनवारो हारि है, घरे बैठ निहचिंत ॥९८॥ ऊंचे नीचे सामने, बाँये पूछे कोय । चार चंद्र घर जानिये, पूरे अक्षर होय ॥९९॥ पीछे नीचे दाहिने, तीन सुरज घर जान । ऊने अक्षर वचनके, कारज सिद्ध बखान ॥१००॥ शून्य दिशा हो पूंछही, पृथ्वी तत्व जो होय । घाव लगो कहुँ ओद्रमें, युद्ध प्रश्न करे कोय ॥१०१॥ पूंछत में जल तत्त्व होय, लगो पांव में घाव । अग्नि घाव हृदये कहो, मोतिदास सतभाव ॥१०२॥ घाव हाथ में भाषिये, वायु तत्व को देख । सिरमें घाव जु जानिये, तत्व अकाश को पेख ॥१०३।। शत्रु फौज नहि घेरिये, दहिने पूंछे कोय । सूर्य सुर कहो जीत है, जाय लडो रन सोय ॥१०४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवन स्वरोदय । [३८] राज राव उमराव नर, लडन खेत में जाय । पूंछ जिनके नाम ले, को जीते रन मांय ।।१०५॥ पहल नाम ले जीत कहु, चहते सुर को जान । नाम पाछले हार है, शून्य दिशामें मान ॥१०६॥ कोई पूछे युद्धको, होय नहीं की बात । जल सूरज सुर युद्ध होय, पृथ्वी तत्त्व कुशलात ॥१०७॥ ऊने अक्षर सूर्य सुर, पूछे जीत बखान । पूरा अक्षर चंद्र सुर, निहचै जीते मान ॥१०८।। श्वासा नीची चलत में, प्रश्न करे जो आय । जातहि जीते शत्रुको, मोतिदास सतभाय ॥१०९॥ ऊरध श्वासा चलत में, पूछत हार बखान । मोतिदास बासों कहो, युद्ध करन मत जान ॥११०।। कोई बात को प्रश्न कर, चलते सुर में आय । ताको कारज सुफल कहु, अफल शून्य सुर पाय ॥१११॥ नृप गुणज्ञ धनवंत पे, पातसाह पै जाय । ऊने अक्षर नामके, भेंट मूर्य सुर जाय ।।११२॥ सूरज सुर में तीन डग, आगे दहिनो पाय । तो सुखसंपत बहु मिले, मोतिदास सतभाय ॥११३।। पूरे अक्षर नाम के, भेंट चंद्र सुर माँह । आगे डेरी चार डग, सुख संपत फल पाह ॥११४॥ बैठ सभा में वाद कर, वादी दहिनो राख । ___ वाद जीत हारे नहीं, मोतिदास सतभाष ॥११५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९] पवन स्वरोदय । दिन ऊगे ते सूर्य सुर, पहर एक ठहरंत । तो कुटुंब में नाश है, चित्त उदास करंत ॥११६॥ दोय पहर सूरज चले, होवै धनको नाश । धाम छुटे तीजे पहर, बरणी मोतीदास ॥११७॥ चार पहर सुर दाहिनो, देह रोग मृतु होय । पांचै राजबिरोध है, छठे क्रोध घर होय ॥११८॥ बैर होय साते पहर, आठे तनकी हानि । तीन वर्ष काया रहे, दिवसरैन चल भान ॥११९॥ दोय रात अरु दोय दिन, सूरज सुर भरपूर । दोय बरष काया रहै, फेर रहे नहि नूर ॥१२०॥ तीन रात दिन तीन लौं, जो सूरज सुर पेख । एक बरष काया रहै, फेर मृत्यु गति लेख ॥१२॥ सूरज सुर दस दिन चले, छठे मास मृतु होय । दिन रवि चंदा रातको, एक मास मृतु सोय ॥१२२॥ निसबासर चंदा दिना, सूरज सुर परकाश । पलभर चंदा ना चले, पंद्रह दिन मृतु बास ॥१२३॥ नौ दिन भृकुटी ना लखे, अनहद बँद दिन सात । सिर धर पहुंचा दीर्घ लख, पँचय दिन मर जात ॥१२४॥ नासाको मित तीन दिन, रसना मित दिन एक । चार घरी मित सुषमना, मोतिदास अवसेक ॥१२५॥ चले पहर भर चंद्रमा, लाभ होय आनंद । चौदह घरि चंदा चले, तो अनेक सुखकंद ॥१२६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवन स्वरोदय । [४०] चार आठ बारह दिना, सोरह बीस बखान । इतने दिन चंदा चले, बढती आव बखान ॥१२७॥ रेचक पूरक कुंभके, योग करे जो कोय । काल बचावें संत सो, मोतिदास सिद्ध होय ॥१२८॥ आसन निद्रा दृढ करे, अन्न जल थोरो खाय । अमी पिये सुरमत चले, ज्ञान त्रिकालहि पाय ॥१२९॥ नीर पवन दोई गहे, सुखपत बिंद रखाव । काल कम दुख भय मिटे, मन वांछित फल पाव ॥१३०॥ पवन सार नित पाठकर, सुर मत निरख चलंत । लछमी तिन के चरण की, दासी होय रहंत ॥१३१॥ काल योगिनी डर नहीं, भद्र योग मत लेख । लगनवारतिथि मत गिनो, स्वरमत गहे विशेष ॥१३२॥ तिस दिनस्वरकोसमझिये, नासा दृष्टि रमाय । मोतिदास सत्र सिद्धि लहै, सकल विघ्न नसि जाय ।।१३३॥ पवनसार यह ग्रंथ है, सूक्षम कह्यो विचार । मोतिदास बरणन कियो, सब ग्रंथन को सार ॥१३४॥ संवत अठारह सौ गये, सत्तासी की साल । कातिक सुद दूज तिथि, चंदा वार विसाल ॥१३५।। ता दिन पँथ पूरण भयो, सतगुरु के उपदेश । लघु मति मोतीदासने, कियो ग्रंथ परवेश ॥१३६॥ ॥ इति श्री पवन स्वरोदय ग्रन्थ समाप्तः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व स्वरोदय । सर्व शास्त्र को सार है, चार वेद को जीव । यह मत समय विचारि है, ताहि मिलेंगे पीव ॥ १ ॥ पवन चले पानी चले, औ पृथ्वी चलि जाय । तच्च स्वरोदय ना चले, संत लेहि अस्थाय ॥ २ ॥ शनि वासरे दहनी नाडी, कृष्ण पक्ष विशेष । गुरु, सोम वासरे बाँयी नाडी, शुक्ल पक्ष विशेष । मेष, सिंह, धन, तुला, मिथुन और कुंभ येछ राशि सूर्य – उदयकी । वृष, कन्या, वृश्चिक, मक्र, मीन और कर्क ये छ राशि चंद्र - उदयकी । संक्रान्ति लग्नः - सूर्य में जो चन्द्रमा बहै तो अशुभ है, औघट चोट होय । और कर्क, मत्र की संक्रान्ति में सूर्य बहै तो अढाई मास में अपनी मृत्यु निश्चय जानिये | और अपने लग्न में संक्रान्ति में सूर्य बहै तो जौन कार्य कीजे सो सिद्ध होय । अथ वार विचारः - सोमवार को सूर्य बहै तो कछु चिन्ता उपजावै | और मंगलको चन्द्रमा बहै तो धन की हानि जानिये | बुध को सूर्य बहै तो संगमें विग्रह जानिये | जो पल २ ऊपर को स्वर बदले, प्रमाण भर न चलै तो अढाई I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व स्वरोदय | [ ४२ ] दिन में अपनी मृत्यु जानिये । या कुछ बडा डंडक लागे ताको साधन कहते हैं: "जो स्वर चलै सो दीजै पाँव, कहा करेगा यम का राव ।" सूर्य वासरे चन्द्र अशुभ है, चन्द्र वासरे सूर्य अशुभ है । अथ चन्द्रमा फल ( स्थिर ) को विचार :चन्द्रमा में गमन कीजै, कपड़ा पहिरिये, मँत्र कीजै, धर्म कीजै, गढ़-कोट नींव दीजै, तालाव बंधाइये, कुँवा बनवाइये, घर बंधाइये और प्रवेश कीजिये । अथ सूर्य फल :- व्यापार कीजै, भोजन कीजै, मैथुन कीजै, घोडा - हाथी सवारी कीजै, नाव पर चढिये, समर कीजै । अथ मंदाग्नि को विचार :- दहिने स्वर में भोजन कीजै, सूर्य को ऊपर देके सोइये तो अनि बढे । ' शशि सोवै सूरज भख, उभे न अँचवै नीर । कहैं कबीर वा दासको, निर्मल होय शरीर ' ॥ ३ ॥ अथ युद्ध को विचार:- जब शत्रु पर कोऊ चढै तत्र दहिने स्वर में चलै तो शत्रु को जीतै । बाँये स्वर में हारै । चाँये स्वर में घर सों निकसे तो शुभ होय । " दोनों अनी जुरे जबै, जो कोइ पूछे आय । तत्र जेही स्वर चलत होय, ते पूरा कहलाय ' ॥ ४ ॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] तत्त्व स्वरोदय । ___ जो पूरे घर पूछे आई, जिनका नाम प्रथम जो लेई; सो जीत । और सूने घर पूछे, प्रथम नाम लेयः सो हारै। जेहि तरफ शत्रु का सैन्य होय ताहि तरफ अंग राखै तो अपने सैन्यको घाव न लगे । और शत्रुके सैन्यके तरफ को अपना चले जो स्वर राखै ते सरदार, उस तरफ का कोई घाव न आवे । ____ अथ देश भेदः-पूर्व, उत्तर चन्द्र दिशा । पश्चिम, दक्षिण सूर्यदिशा । तहां युद्ध के समय सूर्य नाडी चलती होय तो चन्द्रमा की दिशा लीजै । और चन्द्रमा की नाडी चलती होय तो सूर्य की दिशा लीजै । यह विचार दिशा लेवै तो जय होवै और पांच असवार-पचीस असवार को जीतै विशेष । अथ गमन भेदः-सूर्य नाडी चलती होय तो चन्द्रमा दिशा जाय तो शुभ है । और जो स्वर चलता होय उसी दिशा को जाय तो मार्ग में विशेष भय होय, उपद्रव होय । हर नाडी के चार चार लक्षण :-दहिने, आगे, पीछे चलै तो निश्चय इन घर पूर्ण सूर्य रहता है । वाँये, आगे, उँचे, बैठे; इन घर चन्द्र पूर्ण रहता है । ताका प्रश्नः--चन्द्र स्वर चलता होय और चन्द्रमा को दिन होय तो सुकाल होय । और सूर्य घर में पूछे, सूर्य होय तो शुभ होय । अरु सूर्य घर होय पूछै अरु चन्द्रमा होय तो कार्य विलंबसे होय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व स्वरोदय । [ ४४ ] अथ पांच तत्त्व को विचार । प्रथम आकाश, दूजे वायु, तीजे अग्नि, चौथे जल और पाँचवें पृथ्वी । जल तत्व अपने को फल करता है। आकाश, वायु और अग्नि दहिने स्वर में शुभ दायक हैं। जल और पृथ्वी बाये स्वर में शुभ हैं । सत्त भाव को शुभ मंत्र सिद्ध होय । अथ तत्व को विचार-आकाश तत्वः रंग कारो. स्वाद फीको, सबसे जुदा और सर्व के बीच में रहता है । सर्व कर्म का नाश करता है और मोक्षदाता है। ताके ध्यान को मंत्र, " ॐ ₹-ग-ह-सँ नमः ।" जाप एक हजार १०००, माला काठकी। वायु तत्त्व लक्षणः-रंग हरो, रूप भयानक, स्वाद खट्टो, तिरछा चलता है। ताके ध्यान को मंत्र, “ॐ नमः।" जाप आठ हजार ८०००, माला सर्व धातुकी । जौंलौं दहिने स्वर में बायु तत्व बहै तबलग मंत्र जाप करै तो शत्रु का नाश होय। ___अग्नि तत्त्व लक्षण:-वर्ण क्षत्री, रंग लाल, त्रिकोणाकार, स्वाद चरपरा, ऊपर को चलता है। आंगुल चार प्रमाण । ताके ध्यान को मंत्र, “ ॐ अँ-ग-र-ग नमः ।" जाप एक हजार १०००, माला गुंजकी । जब लों दहिने स्वर में तत्त्व बहै तबलों मंत्र जाप करे तो शत्रु का नाश होय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] तत्त्व स्वरोदय। जल तत्त्व लक्षण:-दहिने स्वर में, वायु स्वर में, वर्ण ब्राह्मण, रंग श्वेत, गोलाकार, स्वाद कषायला, नीचे को चलता है । आंगुल सोलह प्रमाण है। ताके ध्यान को मंत्र, " ॐ मँ-ग नमः।" जाप सोलह हजार १६००० माला मोती की। जब लग जल तत्त्व बहै तब लग इस मंत्र को जाप करै तो सर्व कार्य सिद्ध होय । पृथ्वी तत्त्व लक्षण:-वर्ण शूद्र, रंग पीरो, स्वाद मीठो, चले सूधो, आंगुल बारह प्रमाण है । ताके ध्यान को मंत्र, " ॐ -अ-ग नमः । " सर्व सुख को दाता है । जाप बारह हजार १२०००, माला राम रज की । जब लौं बायु स्वर में पृथ्वी तत्त्व बहै तब लों मंत्र जाप करे, ताको फल समस्त है अरु ध्यान विशेषते मोहनभोग मिले। सर्व रोग का नाश होय । ___अथ गर्भ विचार:-रात्रिके समय श्वास चढ़ावै, बीज देवै तो गर्भ रहै । विशेष वृद्ध अवस्था लों जिये । अरु श्वास उतरतेमें बीज देय तो थोडी उमर होय । और भोग करते समयमें पुरुषको दहिनो स्वर होय अरु स्त्रीको डेरो (बॉयो) स्वर होय तो कामदेवके समान लडका हो । और पुरुषको डेरो होय, स्त्री को दहिनो होय तो पुत्री होय । अरु हरहमेश सूर्यमें वीज देवै तो पुत्र होय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व स्वरोदय । [ ४६ ] अथ गर्भ तत्व भेद:-वायु तत्व में गर्भ रहै तो झूठा होय, बातें बहुत करै, बहुत फिरै । तेज तत्वमें गर्भ रहै तो रोगी होय । और भोग करते समय पृथ्वी तत्व होय तो भाग्यवान पुत्र होय, भोगी होय, धनवान होय, धैर्यवान होय । जल तत्त्वमें बीज जमे तो राजसी पुत्र होय । ____ अथ गर्भ प्रश्नः-जो कोई पूछै कि इस स्त्रीके लडका होगा या लडकी तो, जो सूर्य चलता हो तो लडका होय और चन्द्र चलता होय तो लडकी होय । अथ काल जानने का विचार:-दिन रात सूर्य बहै तो तीन वर्ष का यार ( आयु ) है । दो दिन दो रात सूर्य रहे तो दो वर्ष का यार है। तीन दिन तीन रात सूर्य बहै तो एक वर्ष का यार है। देश विचार:-चैत्र वदि परिवाको मुख पश्चिम करके बैठे, पांच तच्चको विचार करे । प्रातःकाल वायु तत्व होय तों मूसा, टीडी आवे, पवन बहुत बहै, मेघ थोडा बरपै, दुर्भिक्ष होय । और अग्नि तत्त्व होय तो अग्नि प्रचंड होय, युद्ध बहुत होय, मेघ थोडा बरखै, बराही को रोग लगे । पृथ्वी तत्व होय तो मेघ बरथै, रोगका नाश होय, अन्न समस्त बना रहे । जल तत्त्व बहै तो मेघ बहुत बरषा करे, मनुष्य आनंद रहे, उपद्रव का नाश होय । आकाश तत्त्व बहै तो मकरी परे, काल परे, रोग आवे । अंदर सवा दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] तत्त्व स्वरोदय । घडी पूरो स्वर मूंद रहै तो आपको गाफिल न रहो चाहिये । जो गाफिल रहै तो नाश हो जायगा। अथ काल बचावे को विचार:-प्रथम अन्न कमती खाय । फिर रेचक, पूरक, कुंभक करे। सूर्य को चंद्रमें मिलावे, चंद्र को सूर्यमें मिलावै; इसी तरह पवन वश करे। फिर दश दरवाजा बंध करिके पवन खींच राखै पहर भर तो काल न पावै । चेतनताई राखि के जब काल आवत देखे तब श्वास को खींच राखै तो जब लों चाहै तब लों जीयें । शुक्लपक्ष चन्द्रमा को। कृष्णपक्ष सूर्य को। जो शुक्लपक्ष परिवाको सूर्य बहै तो मित्रकी हानि होय, उदासी होय । शुक्लपक्ष परिवाको चन्द्रमा बहै तो शुभ होय । कृष्णपक्ष परिवा को चन्द्रमा बहै तो अशुभ होय । अपनो मृत्यु आगम जानिये । सूर्य बहै तो शुभ है । कृष्णपक्ष परिखाको और शुकपक्ष परिवाको दोई सुर बहै तो जो कार्य करे सो सिद्ध होय । सूर्य उभै अक्षर पूरा पद । चन्द्रमा स्त्री । सूर्य पुरुष । शुक्लपक्ष आदि परिवाको तीन दिन चन्द्रमाके, तीन दिन सूर्य के, यह क्रमसे पूनों लहै । कृष्णपक्षके परिवासे तीन दिन सूर्य के, फिर तीन दिन चन्द्रमाके, ये क्रमसे अमावास्या लहै । इतवार, बुधवारको पृथ्वी तत्त्व बहता है। शुक्र, मंगलको अग्नि तत्त्व बहता है। बृहस्पति को वायु तत्त्व बहता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व स्वरोदय [ ४८ ] सोमवार को जल तत्व बहता है। शनिचरको आकाश तत्व घहता है। सूर्य दिशा होय, सूर्यवार होय, सूर्य की तिथि होय, अग्नि तत्त्व वायु तत्व होय ऐसे लग्न में जो कोई शाप देय सो पूरा होय। ____ चन्द्रमा की तिथि होय, चन्द्रवार होय, चन्द्रपक्ष होय, चन्द्रस्वर होय, जल, पृथ्वी तत्त्व होय ऐसे लग्न में आशीष देय तो पूरी होय । रोग प्रमाण:-वायु तत्त्व में वायु होय जानिये। अग्नि तत्त्व में पित्त जानिये । जल तत्त्व में कफ जानिये । आकाश तत्त्व में मृत्यु जानिये । श्वास खींचते में प्रश्न करे तो सिद्ध होय । श्वास उतारते में प्रश्न करे तो सिद्ध न होय। तत्त्व न मिले ताको विचार:-अष्ट कमलमें पांच तत्व की भाठी । सूर्य के दिन चन्द्रमा बहै तो उदासी होय । आकाश तत्त्व शीशमें, अग्नि तत्त्व ओठमें, वायु तत्व नाभिमें, जांघमें पृथ्वी तत्त्व । और जो कफ से गला सैंधा होय तो दोनों स्वर बंद करे तो कफ फट जाय ॥ ॥ इति श्री तत्त्व स्वरोदय ग्रन्थ समाप्तः ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्लभ योग। दुर्लभ योग संग्राम कठिन खांडे की धारा । थाके शंकर शेष और जिव कौन विचारा ॥ सुर नर मुनि जन पीर रहे सब भौजल वारा । गुरुगम गहहि बिचार सो उतरै पारा ॥ सन्तोषी सम भाव रहै निर्वैर निरासा । सो जन उतरै पार काल नहि करे विनासा ॥ नहि आगे की चाह पीछे संशय नहि कोई। रमै जु सिंगीनाद पियाना दे गत कहिये सोई ।। ना शत्रु ना मित्र संगम दूजा नहि कोई । इस विधि रहे सदाय संत जन कहिये सोई ।। ना काहू से नेह देही का सुख नहि चाहै । सीत ऊष्ण सिरपर सहै आदि अंत ऐसी निरवाहै ।। छांडे सकल हि स्वाद मीठा अरु खारा । इन्द्री भोग न करही सो योगी ततसारा ।। घर बन एको रीत राचै नहिं भाई। कनक कामिनी त्याग रहे उनमुनि लौ लाई ॥ ऐसी रहनी जो रहे ताहि लेहु पहिचानी । कहै साँच रहै काछ सो प्यारा है प्रानी ।। शब्द सरोतर कहै मिथ्या कबह नहि बोले। खोजे पद निरबान बन बन काहे को डोले ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्लभ योग। [५ ] आशा तृष्णा छांड तजै सब झूठ ब्यौहारा । रहै निरंतर लाग सो योगी ततसारा ।। काया बस करे मोह तजे अरु ममछा पीवे । ऐसा अवधू जान मरे नहीं युग युग जीवे ॥ लालच लोभ निवार आतमा अस्थिर लावो । बाजे अनहद तूर नूर का दरशन पावो । कूआ बावडी बाण ना कर बाड़ी बागा। आसन मढी मसान तजे सब बाद विवादा ।। जंत्र मंत्र टाना टुमन जड़ी बूटी नहिं जाने । अविगति नाम अराध और मिथ्या करि जाने ।। परहरु पांच पचीस दोये तजि इक पहिचाने । सतगुरु के परताप ऐसी गति बिरला जाने ।। जाने वाळू सुख नहि दुःख मगन व्है गगन समावे । रहे निरंतर लाग ताते अनभे पद पावे ।। यह निज ज्ञान विचार रहे उनमुनि लौ लाई । कहै कबीर विचार तहाँ कछु अंतर नाहीं ।। साप मरै बंबी उठे, बिन कर डमरू बाजे । कहैं कबीर जो विष जीते, प्रान पडे (तो) सतगुरु लाजे ॥ गुन गाये गुन ना हटे, कटे (न) नाम बिन रोग। सत्तनाम जाने बिना, (क्यौं) पावै दुर्लभ योग । साधु सँगत गुरु ज्ञान धन, धीरज धर्म संतोष । सत्तनाम सुमिरन भजन, येही भक्तिको मोक्ष । ॥ इति दुर्लभ योग संपूर्ण । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ग्रन्थ बड़ा संतोष बोध । धर्मदास वचन। धर्मदास पूछे चित लाई, तत्वभेद कहिये समुझाई । कौन तुरे कै जोजन दोरा, भाखो साहेब हम है भोरा । तत्वनको अस्थान चिन्हावो, भिन्नभिन्न करि मोहे बतायो । विनय करौं कीजे प्रभु दाया, धर्मदास गह दोनों पाया। सतगुरु वचन । धर्मनि सुनो तत्त्व ब्यौहारा, निस वासर का कहौं विचारा । लाल तुरे जोजन परवाना, मुसकी जोजन डेढ सिधाना । हरै तुरे जोजन दोय जाई, पीरा जोजन तीन चलाई । हंसा जोजन चारहि धाई, फिरके डंड तबे ले आई। मूल कँवल है तेज ठिकाना, षट्दल तत्त्व अकास बखाना । कवल अष्टदल है तत्त्व बाई, द्वादश दलमौं पृथ्वी रहाई । षोडस दल जल तत्व बखाना, धर्मदास गहि राखु ठिकाना । यह विधि पांचों आवे जाई, अपनि अपनि मजल के मांई । पांच तुरे रथ एक समारा, ता भीतर मन जीव पसारा । जीव पडा है मनके हाथा, नाच नचावें राबै साथा । साखी-अष्ट पंखुरी को कॅबल हैं, तेहि भीतर जीवका बास । तापर मनको आसना, नप शिष तिनके पास ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा संतोष बोध। [५२ ] सुर मिलावे चंद को, चंद मिलावे सूर । यह निज भेद विचारसों, ताहै मिले गुरु पूर ॥ जाहै पवन पर चंदा बसें, तेहि नहि ग्रासे काल । नो यह भेद विचारही, सोई जौहरी लाल ॥ पानीमें पावक बसें, अति धन बर्षे मेघ । तीनों अधर अकास हैं, कौन पवन को थेघ । महिमा है वह नाम की, ऐन कहं आपस कीन्ह । जो यह भेद बताई हैं, सीस अरप तेहि दीन्ह ॥ धर्मदास वचन । साहेब कहौ भेद टकसारा, जेहिते जीवन होय उबारा । नवों तत्व के भेद बतावौ, सकल कामना मोर मिटायौ । पांच तत्व खेल मैदाना, चार तत्व वे रहे ठिकाना । छै तत्वनको भोजन केता, जाके चीन्हे आगम चेता। सतगुरु वचन। छठवें तत्व . निरंजन नाऊं, नयनन बीच बसायेऊ गांऊं । नाभी कवल शब्द उठ नाला, नयनन बीच निरंजन काला । ताहि कँवलको नाम बताई, चार बरण होय रूप दिखाई। लखे शब्द सो जानें भेदा, राता पियरा श्याम सुपेदा । कँवल एक बानी है चारी, बैठ निरंजन आसन मारी। सावी-ताहे कँवल को छोडके, कीजो शब्द विचार । पांचों तत्त्व सम्हारहूं, उतरो भवजल पार ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३] बड़ा संतोष बोध। चौपाई। छसैं और इकईस हजारा, येते निशदिन दम्म सुधारा । ताको भोजन सब मिल पावै, जो सतगुरु यह भेद बताएँ । बीस सहस्त्र पांच देव पाई, ताको लेख कहौं समुझाई । प्रति देव पीछे चतुर हजारा, सहस्त्र जाप रहु छौं धारा । सोरह से में बाकी रहई, ताकर भेद हंस कोइ गहही । जाप अठोतर जब रहि जाई, तेहि खन शब्द है सुर्त मिलाई। साठ समै बारह चौपाई, ततखन हंसा लोक कहां जाई । साखी-जा दिन काल गरासही, पगते करें उजार । ___भागी जीव चढ बैठें, शब्द के कुलुफ उघार ॥ चौपाई। सुषमन तत्व करें असवारी, तबही कालकी पहुंचे धारी । धर्मदास वचन ।। साहेब तिनका भेद बताई, जाते काल छुवै नहि पाई। नौ तत्वन को कहिये भेदा, एक एक के कहौ निषेदा । सतगुरु वचन । नौं तत्वन को भेद बताऊं, द्वारा तिनका कहि समुझाऊं। वायु तत्वमें छूटे देहा, पवन मंडल में जाय उरेहा । तेज तत्वमें करे पयाना, वज्र शिलामें जाय समाना । अकास तत्व में छूटे भाई, तारागनमें जाय समाई। धरती तत्व छूटे जेहि देहा, जल जीवमें जाय सनेहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा संतोष बोध | [ ५४ ] । । जल के तत्व छूटे जीव जाई, नरकी देह धरे तब आई । सुषमन तत्व में छूटे सरीर, पसु पक्षी अस कहैं कबीर । छै तत्वन का कहा विचारा, तीन तत्वनको भेद निनारा । तीन तत्वन को भेद जो पावैं, निहचै हंसा लोक सिधावैं । तीन तत्व अब प्रगट बताई, जो बुझे सो लोक हि जाई । शब्द तत्व को जानें भाई, सुर्त तत्व को ध्यान लगाई | निर्त तत्व जाके घट होई, आवा गवन रहित तेहि सोई । नौं तत्व का कहा विचारा, धर्मदास तुम करो सम्हारा । कहेउ भेद तत्वनको बानी, छत्र अधर है नाम निसानी । तीन भेद पुरुष के पासा, छोडे काल जीवकी आसा । पुरुष शब्द है सीतल अंगा, तत्व निःक्षर कँवल के संगा । आप पुरुष तेहि पिण्ड न माथा, पुरुष शब्दते देखो माथा । काया मांहि लगी एक नाला, तहँवां हौं निरंजन काला | ता सिर ऊपर पांजी लागे, ता चढ हंसा जैहैं आगे । सेत हैं पीत कँवल हैं राता, तीन तत्व जीव संग रहाता । ताहि तत्व को भाव सुनाई, तीन रूप तिय संग रहाई । काया खेत जा हैं हम दीन्हा, खेत कमाई आगम चीन्हा । सप्त पंखुरी कँवल एक होई, ताकर भेद कहौं मैं सोई । कँवल एक लोक है तीना, तीन लोक दीन्हा प्रवीना । ताकर काल गम्य नहि कीन्हा । गहो शब्द टकसार । कहैं कबीर धर्मदास सौं, उतरो भवजल पार || । चौथा लोक अधर कहाँ चीन्हा, साखी - तीनो लोक विचार कैं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा संतोष बोध | [ ५५ ] धर्मदास वचन | परवाना, तीन लोकका कहो ठिकाना । साहेब बचन कहो सतगुरु वचन । निदाना । ब्रह्म लोक लिंग अस्थाना, ताते उत्पति होय विष्णु लोक नाभी विस्तारा, शिवका लोक हृदय मंझारा । चौथा लोक अधर अस्थाना, कहैं कबीर मैं कहौं निदाना । ताहि लोकको ध्यान लगावें, चलते हंस काल नहि पावैं । सप्त पंखुरी कहौं ठिकाना, धर्मनि वचन सत्यके माना । श्रवण दोय पंखुरी बानी, सब रस लेय सुनै सुख मानी । तीजे नयन पंखुरी आनी, चौथे दूजा नयन बखानी । पांचौं पंखुरी कहौं विचारा, रसना शब्द उठे अहंकारा । छठवें पंखुरी ईन्द्री जानो, उतपति बिन्दु लै डारै तानी । साते पंखुरी हेठ बतावा, खोज कँवल अस्थिर घर पावा । पंखुरी सात कँवल हैं एका, भीतर ताहै जीव मन टेका। ताहै कँवल में तार लगाई, सोई तार कहँ चीन्हो भाई । सो वह तार अधर लै राखा, जो कोई साधु हिरदय ताका | ताहे तारका बहुत पसारा, खंड ब्रह्मंड पताल समारा । ताहे तारमें डोरी लागी, विरला चीन्है हंस सुभागी । ताकर भाव है सेतहि अंगा, नाम निःक्षर ताके संगा । साखी - कबीर धर्मदास निःक्षर, गुप्त निःक्षर नाम । कहैं कबीर लख पावैं, होवें जीवको काम || धर्मदास वचन | साहेब कहौ जीव किमि आवा, नरदेही कैसै के पावा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा संतोष बोध। [५६] सतगुरु वचन । पौन जीव ब्रह्मंड बनाई, ता पीछे नाभी चलि जाई । नयन नासिका कीन्हौ साखी, मूल कँवल सुर्त गहि राखी । चक्षु जोत तहां बरै मसियारा, हृदय कँवल ब्रह्मंड मँझारा । साखी-बैठत जीव जायके, द्वीपन क्षेत्र मंझार । कहे कबीर धर्मदाससों, ऐसा कीन्ह विचार । चौपाई। सीस सँवार बांह निरमाई, कंठ कँवल मुख हृदय बनाई । तापर छव एक बरण संवारा, पौन जीवसों भौ उजियारा । कँवल संबुज औ सेत है राता, नाभी कीन्ह सकल पुनि गाता। तेहि पीछे दोय खंभ लगाई, रचि काया पुनि जीव समाई । सत्य पौन पुरुष के स्वांसा, सोकीन्हों जीवन संग बासा । ताको मेद सुनो धर्मदासा, तौल लेहुं सत्ताईस मासा । छिन छिन पल पल आवै जाई, जीवको संधि लखे नहि पाई । प्रथम घरी ब्रह्मंड रहाई, दूजे घरी नाभि चल जाई । साखी-तीजे घरिके बीततै, फिर तहवा चल जाई । यह विधि रहनी जीवके, कहें कबीर समुझाई ॥ - धर्मदास वचन । दयावंत प्रभु और बताई, छूटे हंस कौन दिश जाई । तौन ठांव मोहे देही बताई, तहां सुर्त राखौ ठहराई । सतगुरु वचन।। साखी-उत्तर दिशा होय निकसैं, अधरहि बैठे जाय । सो मारग बांकी है, सतगुरु देहि लखाय ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७] बड़ा संतोष बोध। धर्मदास वचन। साखी-चार खूट धरति है, आठ दिशा है पौन । सतगुरु कहौ विचारकै, हंसाके दिश कौन ।। सतगुरु वचन । पश्चिम सूर कीन्ह रहिवासा, पूरब चंद कीन्ह प्रगासा । दक्षिण दिशा बाट नहि पाई, उत्तर दिशा लोक दिखाई । माखी-उत्तर घाटी उतरे, पांजी बैठे जाय । तहां ते सुर्त लगावें, पुरुष के परसे पांय ॥ धरती अकाश के बाहिरै, तहां शब्द निरवान । जहां जीव चढ बैठे, काल मर्म नहि जान । चौपाई।। प्रथम हंस सुखसागर जाई, सुखसागरमें दर्शन पाई। सुखसागर के येह संदेसा, उडगण पांती लागे कैसा । हंसा पैठ कीन्ह अस्नाना, उगे लिलाट जो षोडस भाना । लागी डोर शब्द की नेहा, अस पांजी है अधर विदेहा । लागी डोर सुर्तकी तारा, चढ हंसा पांजी उजियारा । चढ के हंस अधर सो पेखा, हंसा उलट ठाट को देखा । भल साहेब कीन्हे मोहे दाया, छूटे सकल मोह औ माया । पुष्प माह जस बास समाना, हंसा धरै पुरुष इमि ध्याना। इहविध जीव अमर घर जाई, धर्मदास सुनियो चित लाई । धर्मदास वचन । सतगुरु भेद सत्त मैं माना, द्वीप खंडका कहा ठिकाना । काया खंड कही मोहै भाखी, जाते जीव अमर घर राखी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा संतोष बोध | [ ५८ ] सतगुरु वचन | बानी, सतवचन तो है कहौं बखानी । । खंड प्रेमही । धर्मदास बूझा भल प्रथमही खंड शब्द है भाई, दूजे तीसर खंड सुर्त निरमयेऊ, चौथे पांचे खंड शील है भाई, छठये खंड छिमा सातै खंड संतोष डिढावा, आठै खंड दया समुझावा । खंड भक्ति कहँ दीन्हा, धर्मदास तुम निजके चीन्हा । इन खंडन में खेलै कोई, निवै हंसा लोकको होई । सुनो सात द्वीपनको नाऊ, भिन्नभिन्न के कहि समुझाऊं । वायु तत्व सुन धर्मनि बानी, पवन द्वीपमें जाइ समानी । तत्व अकाश कहौं समुझाई, द्वीप सागर में जाइ समानी । अग्नि तत्व का सुनिये बानी, द्वीप अगिन में जाइ समानी । धरती तत्व अगम कछू होई, द्वीप जलनिधि जाइ समाई । तेज तत्व सो भाष सुनाई, द्वीप शुन्य में जाइ समाई । जलको तत्व कहौं विस्तारा, तेह सुखसागर द्वोप अपारा। सुषमन तत्व कहौं समुझाई, द्वीप अधर में बैठे जाई । साखी - सात द्वीप नौ समाय । । खंड हैं, इनमें रहे कहैं कबीर धर्मदास सौं, निचे लोक सिधाय ॥ खंड निर्त उठ धाई | ठयेऊ । निरमाई | धर्मदास वचन | साहेब भेद कहौ मैं जानी, सात वार कहांते आनी । सतगुरु वचन | धर्मदास बूझ भल नागर, सतसुकृत तुम ज्ञान उजागर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५९] बड़ा संतोष बोध। कहौं भेद सुनियो चित लाई, चंद सूर दिन वार बताई । पुरुष कौलमें सातौं वारा, ताका भेद कहौं टकसारा । सप्त पंखुरी जब बिगसाई, सातों वार जहांते आई। आगें वार कौलमें रहेऊ, ताहैं वार ते सातौं कियेऊ । सोई कौलतै सातौं वारा, निस वासर को भयो विचारा । साखी-मंजन कीन्हो कौलको, छोलन पर गया पास । ताते चंद सूर भये, पृथ्वी को परगास ।। चौपाई। पहिले छोलन जलना रहिया, ताते सूर तेज अनुसरिया । सुनियो चंद केर सितलाई, धर्मदास मैं देहु बताई । सींचौ अमी छोलन पुनि जत्रही, सीतल चंदा उपजो तबही । छोलन चुनी जो झरझर परही, नक्षत्र चंद्रमा संगत करही । यह सब रचना कूर्म हि दीन्हा, पीछे ध्यान अधरमें कीन्हा । रहै जाय कूर्म के पेटा, धर्मराय ता घर नहिं देटा । पुरुष दीन्ह उतपति धर्मराई, धाये कैलरा कूर्म सो जाई । साखी-छीने माथा नखसों, हेरिन सब विस्तार । महाशून्य ले गयेऊ, धर्मराय बटपार ॥ कूर्म उदरतें नीकसो, कोइन कीन्ह विचार । मूल बीज जब पावस, भये काल बरियार ॥ चौपाई। निकसी खान वेद रस बानी, चंद सूर औ उडगण जानी । सर्व विस्तार निकस जब आई, धर्म जलनिधि राख छिपाई । आद्या पुरुष दीन्ह पठवाई, आद भवानी अमृत लाई । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा संतोष बोध। [६०] अष्टंगी देखा धर्मराई, तासों रति संयोग बनाई । आद्याके विधि शिव मुरारी, मथ जलनिधि हेरिन झारी । अष्टंगी ते भौ विस्तारा, सब रचना यह कीन्ह हमारा । विनती कूर्म पुरुष सों लाई, तुम सुत सीस हमार छिनाई । साखी-वचन तुम्हारे जानेऊ, राख शब्द की कान । नीर जलनिधि सोषके, मेटत सब उतपान ॥ चौपाई। छूछ उदर अब भयो हमारा, अहो पुरुष अब देहो अहारा । बानी पुरुष उधर ते कीन्हा, चाहौ कूर्म मांग तुम लीन्हा । साखी-ना कछू भोजन चाहौं, ना कछू करौं अहार । चंद सूर जब पाइ हौं, तब लेहौं सिर भार ॥ चंद सूर चल आइ हैं, तब मैं करौं अहार । चंद सूर पहुंचे नहीं, तौलौं लीलो संसार । चौपाई। पुरुष वचन तब कहैं विचारी, भोजन सूर पहर लेवो चारी। ससि भोजनका कहौं विशेषा, चारि घरीको राख विशेषा । अमृत छीन छीन तुम लेहूं, पीछे संपूरण कर देहूं । चंद तेज धर्मनि इमि हानी, सूर तेज जिमि बहुत बखानी । कूर्म पुरुष वचनहि देखा, घरी पहर को बांधेउ लेखा । छिन औ पलक डंड प्रवाना, घरी पहर का कहौं ठिकाना । षट् बफको पल एक होई, षट् पलको छिन जानहु सोई । दश छिनका एक डंड बखाना, दोय डंड एक घरी प्रवाना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१] बड़ा संतोष बोध। चार घरी एक पहर विवेखा, चार पहरका दिन एक लेग्वा । सात वार दुनैत्तर आना, येहि विध पाख भयो प्रवाना । दोय पारख एक मास बखानी, तीन चौकडी वर्षहि जानी । आगे देखो ताको लेखा, धर्मदास अब कहौं विशेखा। निस वासर पुनि होय जबही, कूर्म अहार सूर ले तबही । निस चंदा पुनि कीन्ह प्रगासा, वासर सूर कीन्ह रहिवासा । अमी चंदके पेट रहाई, ताका लेख कहौं समुझाई । कूर्म अहार चंद इमि लीन्हा, घरी घरी घटती तब कीन्हा । पाख दिना लग भौ परगासा, पूरण चंदा भये निवासा । ब्रत अखंडित पूनौ सोई, यह चौका कूम कर होई । ताते व्रत बंस कहां दीन्हा, अंस बचाय जीव कर लीन्हा । यह सुन कूर्म हर्ष मन आई, पुरुष वचन जब कहैं समुझाई । धर्मदास वचन । साहेब कहेउ भेद हम पेखा, अब भाखौ पवन कर लेखा। पवन भेद मोहि कहौ समुझाई, वचन तुम्हार हिरदे लौलाई । कहवां ते यह पवन उठावा, दिसा भेद मोहे कहि समुझावा । ताहि पवन के नाम बुझाई, तत्त भेद मोह देहो बताई। सुर्त सम्हार चरन चित देई, साहेब मोहे अपन कर लेई । सतगुरु वचन । धर्मदास सुन पवन न पानी, कूर्मके मुख पवन उतपानी । चारों और पवन उठ आवा, ताकर भेद कोई नहि पावा । कूर्म माथ मैं कहौं बखानी, सज्जन संत कोई कोई जानी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा संतोष बोध आठ माथ पृथ्वी सों माथा तीन छीन ले ताका चौदह भुवन अधर पवन सों जीव ताहे पवनका जानें [ ६२ ] भिन्ना, आठ दिसा भये ताकर चीन्हा । गयेऊ, धर्मराय तेहि ग्रासन कियेऊ । बनाई, सोई रूप नर केर सुभाई । उतपानी, चलेउ रंध्र सो अधर समानी । नांऊ, कर्मज काट करै मुक्ताऊ । ताहे पवन का पारस नामा, होय संयोग उठे जब कामा । बाहेर होयके देह जगाई, उठै बिन्द तब चल मनसाई । रितु बसंत त्रियजा दिन होई, स्वांति पवन परे पूरन सोई । धर्मदास तोहे कहौं विचारा, शून्य परै सो भेद निनारा । स्वांती पवन छुवे नहिं पावै, चिन्द अकेला जो उठ धावै । ताते शून्य होय पुन जोई, कहौं भेद चित राख समोई । तन तत्व बिंदो गहो जोई, ताते बांझ होय पुनि सोई । उतपन पवन कहीं मैं सोई, स्वांती पवन लै संपुट होई । तौन नाम सुन हंसा पावैं, कहैं कबीर सो लोक सिधावैं । चलत बिन्द तीनों मुख धाई, अरघ नाम अधर है चढ जाई । अढाई अक्षर मों संसारा, अरध नाम सों लोक पसारा । तौन नाम हैं अधर निवासा, कायातें बाहेर परकासा । । । साखी -धरन अकाश के बाहिरें, जोजन आठ प्रवान | तहां छत्र तनि राखेऊ, हंस करें विश्राम || साठ कोसके ऊपरैं, अकह नाम निनार । उतरें पार | तहवां ध्यान लगावही, हंसा ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] बड़ा संतोष बोध। चौपाई। सतगुरु मिले तो भेद बतावे, नातौं योनी संकट आवै । साखी-अंकुर नाम वह शब्द है, कीन्हा सकल पसार । कहैं कबीर धर्मदास सौं, सुनौ बचन टकसार ।। चौपाई। राई भर है वस्तु हमारी, अर्ध राई अस्थूल सुधारी । लहर लहर वह भीतर होई, पुरुष मूल निज जानहु सोई । उन कहां सौंप दीन्ह सिर भारा, वै जीवनका करें उबारा । भाखौं शब्द पृथ्वी भहराई, फूट अकाश शब्द होय जाई । विष भाखत जो छूट शरीर, आवै लोक अस कहैं कबीर । तत्व प्रवान अधर है धामा, तत्व अंस औ अज्र अनामा । तौंन नाम लै हंस उडाई, छटत पिंड काल नहि पाई। माग्वी-पवन भेद मैं भाखेऊ, कह्यौ भेद टकसार । पचासी पवन हैं बाहेरे, इनमों काल पसार ।। पचासी पवन के बाहेरै, अच शब्द निजसार । धर्मदास प्रतीत के, सुमरहु नाम हमार ।। चौपाई। सुमर नाम औ हंस उबारो, नाम पान औ सुर्त सम्हारौ । साखी-दीजो अपने बंसको, शब्द करै सम्हार । गुप्त नाम गहि राखही, हंस उतारै पार ।। चौपाई। कहौं अधर तुम सुनौ ठिकाना, जाहे अधर मों जीव समाना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा संतोष बोध। [ ६४] साखी-एक अधर होय आवही, एक अधर होय जाय । एक अधर कर आसन, अधरहि मांहि समाय ॥ अधर करै घट आसन, पिंड झरोखे नीर । में अदली कदली बसौं, दया क्षमा सरीर ॥ म धर्मदास वचन । कहेउ तत्व मेरे मन माना, अब प्रभु कहिये सुतं ठिकाना । कहां सुर्त के उतपन भयेऊ, कहां नित दूसर निरमयऊ । कैसे के घट आन समानी, हो समर्थ मोहि कहो बखानी। सुते नित संगम किमि भयेऊ, पसु पक्षी कैसे निरमयऊ । सतगुरु वचन । मूल नाभते शब्द उचारा, फूट नाल तब भये दोऊ धारा । स्वाती पवन अधर सो आई, सुते नित संग लागा धाई । ताका भेद न कोई पाई, पसु पक्षी नल रहै समाई । पसु पक्षी मों रत हो गयेऊ, सुर्त बोध वह शब्द न गहेऊ । जो यह शब्द का करै पसारा, सुतं नित लै करै सम्हारा । गहे शब्द तब लोक सिधाई, बिना शब्द पसु पक्षी भाई । बिना शब्द जिमि घट अंधियारा, छिन छिन ता कहं काल अहारा। शब्द सुर्त नित एक ठौरा, तब मुख वचन होय कछु थोरा। अगम तत्व तुम मथौ सरीर, नित नाम भये सत्य कबीर । निर्त धरै शब्द की आसा, सुते नाम तुमहो धर्मदासा । सुर्त निर्त सो बांधे नेहा, पावै नाम हंस की देहा । कथे ज्ञान भाखेउ टकसारा, धर्मदास तुम करो विचारा । हम तुम कीन्ह सकल पसारा, लोग न मानत मूढ गंवारा । मथुरा बेठके शब्द सुनाई, धर्मदास गहे सतगुरु पाई । ॥ इति ग्रंथ बड़ा संतोषबोध सम्पूर्ण ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सत्यनाम ॥ -सद्गुरु कबीर गोरख संवादग्रंथ गर्भावलि। कबीर वचन-चौपाई। कहैं कबीर सुनो गोरख भाई, इन्द्री बांध मुक्ति किन पाई। सोइ साधन करो गोरख ऐसा, जासु मिटे गर्भ की त्रासा । गोरख वचन। गोरख कहै सुनो प्रभु मोरे, मैं लागत हुँ चरण तुहारे । गर्भ संदेश दया कर कहिजे, आपन जान भेद मोहि दीजे । कबोर वचन । गर्भ संदेश कहूं अस्थाई, लगन तत्त्व सब जुगत बताई । वार तिथि सबहि समुझाऊं, येहि भेद कोई विरले पाऊं । बूझहु भेद गर्भ संदेशा, वार तिथिका कहुं उपदेशा । जब जामें नारी गर्भ में नीरू, सोई तत्व खोजो कहैं कबीरु । वार तिथि लगन तब जाने, सो पूरा ज्ञानी गर्भ बखाने । सोई पूछ गर्भका लेखा, पूरा गुरु जो कहैं विवेखा । विना जुगत सबहि बहुरावा, फिर फिर गर्भवासमें आवा । लगन तत्वकी जुगत जो होई, गर्भ संदेश कहुं पुनि सोई । कहैं कबीर सुन गोरख सिद्धा, गर्भवास ऐसे कर बंधा । गोरख वचन । पूछ गोरख सुनो गुरु ज्ञानी, गर्भ संदेश मोहि कहो बखानी । कहो विवेक बतावो मूला, कैसे बंधे गर्भ अस्थूला । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ गर्भावलि | [ ६६ ] समाई । संचारा | पांच तत्व कहां ते आई, कैसे घटमें आन तीनों गुण का कहौं विचारा, कैसे घटमें कीन्ह बहुत गुण काहेते होई, सकल भेद कहौ समुझाई । कौन गुण नर होवे शूरा, कौन गुण ज्ञानी होवे पूरा | कौन गुण धन होय अपारा, कौन गुण नहि टिके अधारा । कौन गुण होवे छत्र सिंहासन, कौन गुण होवे भभुत के आसन । कौन गुण होय भोग अपारा, कौन गुण होय बिंद संचारा । कौन गुण होय नर धृतारा, कौन गुण होय चोर ठगारा । जंजाली होय कौनसु भाई, कौन गुण सब मांहि समाई । रुड होय कौन गुण जानी, बहिरो होय सो कहो बखानी । युग जोड उपजे नर कैसा, कैसे पहिरे नारी को भेषा । कैसे नमावे सवनको माथा, कैसे जीव होय अनाथा । कोटि धनके कहो व्यवहारा, दालिद्री होय कौन विचारा | कौन पालखी बैठनहारा, कौन होय उठावनहारा । सकल भेद समुझावो मोही, गर्भ संदेश पूछे मैं तोही । । । कबीर वचन | जुक्तसे पांच तत्व तीन गुन पेखो, सात वार जुगत से पंदर तिथि और वार मिलावो, गर्भ संदेश चोट निसाये गुरु लखावे, ज्ञानी सोई गर्भ समुझावे । रवि सनिश्वर मंगलवारा वार तीन लेहो सुरकी धारा । सोम शुक्र और बुद्ध विचारा, वार तीनको चंद्र सिरदारा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com देखो । पावो । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७ ] ग्रंथ गर्भावलि । गुरुवारको भेद निन्यारा, दोउ वीर दोउ असवारा । जैसी तिथि तैसी साहेदी देही, तैसो फल प्राप्ति होही । कृष्णपक्ष पुरुष लगन। प्रथम पुनम कही विचारा, वार रवि जो आवे वारा । पृथ्वीतत्व साहेदी देही, आकास सुर लगन जो होही । छत्रधारी उपजे निरवाना, चहु चकमे चले जो आना । और तत्व लगन जाय निरासा, जमे नहि नीर गर्भमें आसा । परिवा वार चंद्र शुद्ध धावे, चंद्रलगन तत्ववेरियां आवे । कन्या देही धरे शरीरा, रूपवंत गुन बहुत अपारा । तिथि दजो जो रहे समाई, अफल जाय जमे नहि भाई । बीज मंगलका येहि बिचारा, सूर चले जो जलकी धारा । तेज आय जो साहेदी देही, करे ज्ञान वाकुं कोना गहही। नातो प्रत जमे नहि नीरु, अफल जाय बिंद कहे कबीरु । बुद्ध तीजका एही विचारा, चंद्र चले पृथ्वी की धारा । कन्या होय गुन बहुत प्रकासा, कुटुंब करे सब ताकी आशा । और तत्व जमे नहि भाई, कोट जतन करे जो कोई । चौथ गुरुका एही बिचारा, दोई वीर जो होय असवारा । नर उपजे जो सूरजकी धारा, कन्या होय चंद्रकी लारा । जैसो लगन तैसा फल होई, ना देखे कोई भेद बिलोई । अपने अपने तुरी असवारा, जैसा जावन जमे तेहि बारा । पांचम शुक्रका एही विचारा, सूर चले जो जलतत्वकी धारा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ गर्भावलि। [६८ ] कन्या होय कोग तत्व बुझे, पकर शस्त्र रणमांही झूझे । जमे नीर तो यह फल होई, नहि तो कंद्रप जाय बिगोई । छठ शनिश्चरका एहि बिचारा, सूर चले जलतत्वकी धारा । नीच होय अति धनपत कही, वो तो हाथ उठावे नही । नीर जमे तो यह गुन होई, ना तौ बिंद जमे नहि कोई । सातम रविका करो बिचारा, सूर चले जलतत्व अपारा । पुरुष होय तत्वहीन तन होई, मरद होय नपुंसक देही । जो जल जमे तो होयही ऐसा, नातो कंद्रप जमे नहि कैसा । आठम तिथि चंद्रको वारा, जमे कंद्रप आकाशकी धारा । भितर छीजे बाहेर नहि आवे, गर्भ गले कोई चैन नहि पावे । तत्व आकाशका एही विचारा, छीजे कंद्रप गर्भ मंझारा । नवमी मंगलका एही बिचारा, चले सूरज तेजकी धारा । नर उपजे जो बहत विख्याता. अटके जिभ्या करत है बाता। धन धान्य होय घर मांही, सबही दुनियां करहि बडाई । जो उपजे तो ऐसा होई, ना तो कंद्रप जाय बिगोई । बुध दसमीका करो बिचारा, चंद्र चले वायुतत्वकी धारा । कन्या होय नहि करे संतोषा, काम संपूर्ण होय नहि अंगा। जो जमे तो यह फल होई, नातो नीर जमे नहि कोई । गुरुवार तिथि एकादशी होई, ऐसी जुगत पावे नहि कोई । सुर चले पृथ्वीकी धारा, धनवंत नर होय अपारा । बहुत द्रव्यका लहे सुख भारी, ऐसा देखो तत्व बिचारी । जो जमे तो येही तत्व जामे, नहि तो निष्फल जाय अकामे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ गर्भावलि | | कैसा । [ ६९ ] द्वादश तिथि और भृगु वारा, चंद्र चले जो जलकी धारा । कन्या होय बहुत गुनवंती, होवे रूप धीरज हैरंती । जमे नीर तो येही फल होई, नातो नीर जमे नहि कोई | तेरश शनिश्चरका एही बिचारा, चंद्र सूर बहे एके लाग । जलतत्व उन बेरियां आवे, जामे पृथ्वी आन समावे | पुरुष होय धन बहुत अपारा, राजा रंक चले तेहि लारा | जमे नीर तो होई है ऐसा, ना तो कंद्रप जमे न चतुर्दशी रवि दिन होई, सुर चले पृथ्वी की चोर ठगके फांसी डारे, पाडे बाट मनुष्यही कुबुधि जाही में होय अपारा, बेदक लगनका एही बिचारा | सोम अमास बेदक होई, ता दिन संग करो मत कोई । जो कबु संग करे जन कोई, के अंधा के निरधन होई। सूर चले जलमधकी धारा, चोर चुगल होय वटपारा । के घर फोरे लोकनको राती, के निरधन के ठगको संघाती । शुक्ल पक्ष शक्ति की देहा, ताहि लगनमें करो उरेहा । धूर मंगल से परिवा पेखो, चले सूर पृथ्वीसे देखो । पुरुष होय बहुत गुन अपारा, * देई । मारे । बहु ज्ञानी धनवंता होई, इस विध जुगत साधो जो कोई । ना तो बुंद जमे नहि नीरू, अफल जाय अस कहे कबीरू । बुद्ध बीज जमे जो भाई, चंद्र चले सूरज की देई । पुरुष होय जो जोगको साधे, त्रिया को पुरुष नहि आराधे | बिना तत्व जमे नहि नीरू, जो कोइ ज्ञानी देख शरीरू । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ गर्भावलि । ७० ] गुरू नीजका एही विशेरखा, चंद्र चले पृथ्वी संग देखा। सो कन्या पतिवरता होई, काष्ट चढे स्वामी संग सोई । जामन जमे तो यह गुन होई, ना तो बीज जमे नहि कोई। चौथ शुक्र बेदक लगन सोई, जमे बीज दोई सुर बहई । पृथ्वी सूर चले जो धारा, हिजरा होय बहु रूप अपारा । पहरे स्वांग त्रियाका सोई, लगन तत्त गहे भेद बिलोई । पांचम शनिश्चर वेदक लगन होई, लखे भेद बिरला जो कोई । चंद सूर बहे घर दोई, ले बीजक तब आन समोई। तेज तत्व पथ्यी घर आवे, पुरुष होय धनको सुख ना पावे । सिल अंग होय हीन कहावे, जल जमे तो यह फल पावे । रवि छठ दोइ होय पूरा, जल पृथ्वी संग उगे मूरा । धनवंत नर होय नर सोई, दान पुन्य करे ना कोई । महा सूम कृपण कहावे, धर्म पुन्य परोस ना सोहावे । जल जमे तो यह गुन होई, ना तो कंद्रप जमे न कोई । सातम सोम एक संग होई, एही भेद कछु कहा न जाई । पवन तत्व चद्र जो धावे, ताम जल जो आन समावे। वा कन्याका करो बखाना, बरनत लक्षण नहि आवे बरना । जावन जमे तो यह फल जाना, कला अनन्त गुन बहुत निधाना। आठम मंगल करो बिचारा, चले सूर वायु की धारा । अष्ट पंगलो उपजे नर सोई, इनकी कुबुधि को वरनि सुनाई । या जावनका एही बिचारा, पूरा ज्ञानी करे निरबारा । बुध नवमी का एही विचारा, चंद्र चले जो जल की धारा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१] ग्रंथ गर्भावलि । पद्मिनी रूप कन्या अवतारा, गुणवंती शील सुख धारा । बुन्द जमे तो यह फल पावे, ना तो कंद्रप एळे जावे । गुरु दशमी का एही विचारा, दोउ लगन प्रचले जो धारा । बायु तत्व साहेदी देही, बांझ होय पुरुषकी देही । जमे बीज तो एही फल पावे, ना तो मूरख बीज गमावे । भृगु अगियारश कहिए भाई, चले तत्व आकाशकुं जाई । चंद्र चले कन्या तन होई, पुरुष सुख देखे नहि कोई । बालरांड कहावे ऐसा, तत्व आकाशका एही तमाशा । शिर छत्र वाके नहि ठहरे, सोळे शणगार कवु नहि पहिरे । शनिश्वर बारशका एही विचारा, चले सूर जो जलकी धारा । निरधन पुरुष होय जो भारी, अन्नके कारण फिरे भिखारी । रवि तेरस बेदक लगन होई, सूर चले जो जलकी देही । चंद्र सुभाव देही सो होई, मेदल रूप अवतरे सोई । जमे बीज तो यह फल होई, ना तो बीज जमे नहि कोई । सोम चौदश का कह बिचारा, समझे लगन तत्व टकसारा । चंद्र चले वायुकी धारा, त्रिया उपजे बांझ अवतारा । कंद्रप जमे तो यह फल होई, ना तो वीज जमे नहि कोई । रातदिवस की साधे रीत दोई, बेदक लगन दोउके होई । रूंढ मुंढ उपजे नर सोई, बुध पुनमका बुधवंता होई । दोउ बुन्दका जोडा सोई, दोऊ लगन तत्व है दोई । द्विज गुरुका बहुत विधाता, आठम थावर नीच मलेच्छा । गर्भ संदेश संपूरण होई, अब हम बरन सुनावे सोई । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ गर्भावलि | { ७२ ] गोरख बचन । गोरख कहे सुनो प्रभु मोरे, मैं लागत हूं चरन तुहारे । अगम बात कैसे कर जानी, किन यह काया कीन बंधानी । प्रथम कौन गर्भ में आवा, कैसे कर ए पिंड बंधावा । कैसे रचे गर्भ अस्थूला, कैसे बंध्यो गर्भको मूला । मोसे भेद कहो अस्थाई मोरा मन तबही पतियाई । । कबीर बचन | । कहे कबीर सुन गोरख सिद्धा, गर्भवास ऐसे कर बंध्या । त्रिकुटी तीर बिंद अस्थाना, मेरु डंड होय करे पियाना । लगन तत्व है उनके पासा, वेही गर्भमें करे निवासा | शिव शक्तिके व्यापे कामा, बेहे बान मांडे संग्रामा । शिवके बिंद शक्तिको नादा, दोऊ मिलके काया बंदा | रतिको काम मासाकी चोरी, येही बिध मिल माया जोरी । समदरिआव जीवका बासा, श्वासा तत्व लई जाय उन पासा । पवन रेवति अधरते आवे, मन जीव तव आन समावे | जीव मन श्वासा के संगा, श्वास चले तत्व अंगा | बंकनालकी रहा होय आवे, येहि त्रिध गर्भमें आन समावे | कमल दोय नारीके पासा, नाभकमल होय जगमें बासा । शिव शक्ति तहां लहे निवासा, तले जठरा ऊपर जीव बासा । सतगुरु मिले छुडावे त्रासा, नहिं तो पडे कालकी फांसा | गोरख बचन | सुनिये स्वामी गर्भ बंधाना, कैसे करि है हंस पियाना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३ ] ग्रंथ गर्भावलि । कैसे मिटे जठरकी त्रासा, कौन नाम कहिये परकाशा । जब जम रोके सब अस्थाना, कौन रहा होय देहि पियाना । अमर लोक कहां है बासा, कहां करे पुरुष रहिवासा । सकल भेद मोहि कहो बताई, निश्चय बंदहु तुहारे पाई । ___ कबीर बचन । सन गोरख एही भेद अपारा, भली बातका कीन बिचारा। सतगरुका है बाहिर बासा, समझ सरूप महापरकाशा । ऐसा भेद पावे जो कोई, जमपुर कबहु न जाय बिगोई । तब जम रोके दसु दुवारा, त्रिकुटी तज हंसा होय न्यारा। अभे दुबार जब गुरु लखावे, वेही पथ हंसा लोक सिधावे । पवन रेवती पर होय असवारा, पहुंचे हंसा लोक दुबारा । गोरख बचन। धन सतगुरु तुम्हरी बलिहारी, हमरा जीव तुम लीन्ह उबारी । गुरु मछंदर गुरु हम कोना, जिन ने जोग ध्यान मोहि दीना। पवन साघ काया में राखा, मुक्तपंथ दिखायो आखा । तीन तत्व मांहीं सब कोई जाने, जति सिद्ध के नाथ बखाने । अब सतगुरु मोरा करो उबारा, मैं तो सरणा लेहूं तुम्हारा । कबीर बचन । अब हम तुमकुं भेद बताई, देश मोरधन में जनमो आई । जेसलमेर मारु मंझारा, भाटीके घर लेहो अवतारा । ज्ञानी होइ है नाम तुम्हारा, खोजी होइ है गुरु तुम्हारा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रंथ गर्भवति। [७४ ] फिर आवो गुजरात ठिकाना, कानु मंडल भूम बंधाना। जहां होइ है अस्थान तुम्हारा, बहु ज्ञानका तुम करो बिचारा । इन देहीसं समझाव तोही. तम्हरो पंथ बिचल सब जाई । तुम्हरो भेख चले संसारा, तुम्हरे जीवका करो उबारा । तुम तो विंद साधना कीना, भग देख तुम बहुत डराना । जाते गर्भवासमें आई, तुम्हरो पंथ गंम नहि पाई । गोरखके मनमें असी आई, देह धो सिंधमें जाई । क्षत्रिघर तुम हो अबतारा, जुक्तही जुक्तसु करो उबारा । गोरख बचन। साखी-कहे गोरख सतगुरु सुनो, मैं लेहूं अवतार । फिर हमकुं कैसे मिलो, सतगुरु कहो विचार । कबीर बत्रन । कहे कबीर खोजत मिले, तुमही हसो अपार । खोजी मन संशय परे, फिर तुमकुं बूझे विचार ।। जब तुम . हमकुं खोजहो, फिर देहो दीदार | खोजीका संसा मिटे, सहजे होय उबार । जेसलमेरं वाही तरे, भाटीकुल रजपूत । . गुजरदेश पावन कियो, ज्ञानी ज्ञान अबधूत ।। बटक बीजके मांडमें, देख भया मन थीर। : जन ज्ञानी संशय मिट्या, सतगुरु मिले कबीर ।। - इतिश्री गर्भावलि ग्रंथ गोरख कबीर संवाद संपूर्ण । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બી યશો Celeblu Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com