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[१५] ज्ञान स्वरोदय । तीन रात औ तीन दिना, चलै तत्व आकाश । एक वरस काया रहै, फेर काल के पास ॥९५॥ नौ भृकुटि सात श्रवण, पांच तारको जान । तीन नाक अरु जीभ इक, काल भेद पहिचान ॥९६।। भेद गुरुसों पाइये, गुरु बिन लहै न ज्ञान । सत्य कबीर यों कहत है, धर्मनि सुनो सुजान ॥९७॥ जब साधू ऐसे लखै, छठे मास है काल । आगे ते साधन कर, चैठि गुफा ततकाल ।।९८|| ऊपर खेंचे ध्यान को, प्रान अपान मिलाय । उत्तम करै समाधि को, ताको काल न खाय ॥९९।। पवन पिये ज्वाला पचै, नाभि तले करै राह । मेरुदंड को फेरि के, वसै अमरपुर जाह ॥१००॥ जहां काल पहुंचे नहीं, जम की होय न त्रास । गगन मंडल में जायके, करो उनमुनी वास ॥१०॥ नहीं काल नहीं जाल है, छूटे सकल संताप । होय उनमुनी लीन मन, तहां विराजै आप ॥१०२॥ तीनों बंध लगाय के. पांचों वाय साध । सुषमन मारग व्है चलें, देखे खेल अगाध ॥१०३।। सुरति जाय शब्दहि मिलै, जहां होय मन लीन । खेचरिबंध लगाय करि, पुरुष आप परवीन ॥१०४॥ आसन पद्म लगाय करि, मूल कमल को बांध । मेरुदंड को फेरि करि, सुरति गगन को सांध ॥१०५।।
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