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ज्ञान स्वरोदय |
[ ९ ] संक्रान्ती पुनि मेप विचारो, ता दिन लग्न सु घरी निहारो ॥ तब ही स्वर में करहु विचारा, चले कौन सो तत्त निहारा ।। जो बाँयें स्वर पृथ्वी होई, नीको तत्त्व कहावै सोई ॥ देश वृद्धि औ समय बतावै, प्रजा सुखी औ मेह बरषावै ॥ चारो बहुत ढोर को निपजे, नरदेही को सुख बहु उपजै ॥ जल चालै बांयें. स्वर मांहीं, धरति फलै औ मेह बरषाहीं ॥ आनंद मंगल सों जग रहै, जु आब तत्त्व चंदा में बहै || जल धरती दोनों शुभ भाई, सत्य कबीर रनजीत बताई || जल धरती को भेद है, धर्मनि विचार | अग्नि वायु अरु नाम को, अबही करहु तीन तत्व का करहु विचारा, स्वर में जाका भेद निहारा । लगे मेष संक्रान्ती जबही, लगती घरी विचारे तबही ॥ अग्नि तत्व जो स्वर में चाले, रोग दोष में परजा हालै ॥ पडै काल थोडा सा वरषै, देश भंग जो पावक दर || वायु तत्व चालै स्वर संगा, जग में मान होय कछु दंगा || अर्ध काल थोडा सा बरर्ष, वायु तत्त्व जो स्वर में तत्त्व अकास चलै स्वर दोई, मेह न वर अन्न न पडे काल तृण उपजै नाह, तच्व आकाश होय स्वर मांहीं ॥
करहु
पसार ॥ ४८ ॥
दरसै ||
होई ॥
चैत रु महिना माघ में, जबही शुक्लपक्ष ता दिन लगे, प्रात भोरहि परिवा को लखै, पृथ्वी होय होय समय परजा सुखी, राजा सुखी
होय | जोय ॥ ४९ ॥
परिवा श्वास में
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अस्थान । निदान ॥ ५० ॥
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