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पवन स्वरोदय । [३०]
अकाल मृत्यु तन छूटही, भूत होय भरमंत । ताते साधो साधना, कहत वचन श्रुति संत ॥२१॥ थिर द्वादश मग अष्टदश, बत्तिस सयन मँझार । भोग करत चौसठ चले, मोतिदास निरधार ॥२२॥ ताते उम्मर घटत है, अल्प मीच बिच होय । मन चाहे तबलग जिये, साधन करे जु कोय ॥२३॥ डेरो स्वर दिन को चले, दहिनो रात चलाव । देह रोग व्यापै नहीं, जीवे पूरी आव ॥२४।। झाडे अरु अस्नान पुनि, भोजन कर परबीन । दहिने स्वरके काज ये, मोतिदास कह दीन्ह ॥२५॥ जल पीवन पेशाब पुनि, बांयें स्वर के मांहिं । मोतिदास या रहन सो, देहरोग होय नाहिं ॥२६॥ शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, भोरही चंद्र चलाव । आगे डेरी चार डग, पंद्रह दिन सुख पाव ॥२७॥ कृष्णपक्ष परिवा लगे, सूरज लीजे प्रात । तीन पांव दहिने धरे, सुख पंद्रह दिन जात ॥२८॥ चंद्रवार को प्रातहीं, उठत चंद्र स्वर लेय । बांड चार डग पहिल धरि, निशिवासर सुख देय ॥२९।। सूरज दिन को भोरहीं, उठतन सूर्य चलाव । पहिले तिन पग दाहिने, रातदिना सुख पाव ॥३०॥ ईतवार मंगल कहों, और शनीचर वार । सूरजके दिन तीन ये, मोतिदास निरधार ॥३१॥
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