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[२३] ज्ञान स्वरोदय । कारण सूक्षम लिंग है, ऐसे कहि असफल । शरीर चार सो जानिये, मैं मेरी जड़ मूल ।।१७६।। चित बुधि मन अहंकार जो, अन्तःकरन जु च र । ज्ञान सबन सो जानिये, कर कर तत्त्व विचार ।।१७७।। शब्द स्पर्श अरु रूप रस, कहिये गंध सरूप । देह कर्म औ वासना, एक हि है निज रूप ।।१७८।। निराकार है आदि तूं , अचल निवासी जीव । निरालंब निरबान तूं, अज अविनासी सीव ॥१७९।। बांया कोठा अग्निका, दहिना जल परकास । मन हिरदे अस्थान है, पवन नाभि में वास ॥१८॥ मूल कमल दल चार को, लाल पंखुरी रंग । गिरिजा सुत वासो कियो, छसौ जाप इक संग ॥१८१।। कँवल षटू दल रंग पिरो, नाभी तले संभाल । षट् सहस्र तहां जाप है, ब्रह्म सावित्री नाल ॥१८२।। अष्ट पंखुरी कँवल है, लील बरन सो नाल । हरि लक्षमी वासो कियो, षट् सहस्र जप माल ॥१८३॥ अनहद चक्र हिरदै बसै, द्वादश दल अरु श्वेत । षट् सहस्र तहां जाप है, सिव शक्ति जहां हेत ॥१८४॥ षोडश दल को कँवल है, कंठ वासना रूप । जाप सहस्र तहवां जप, भेद लहै अति गूप ॥१८५॥
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