________________
ज्ञान स्वरोदय ।
पांच पर्चासौ एक है, इनको सकल मुभाव । निर्विकार तो ब्रह्म है, आप अपन में पाव ॥१६६॥ निर्विकार निर्लेप तूं, जानहु देह विकार । अपनी देह जानो मति, येहि ज्ञान ततसार ॥१६७॥ शस्त्र छेदी नहीं सकै, पावक सकै न जार । मरि मीटै सो तूं नहि, गुरु गम भेद निहार ॥१६८॥
आंख नाक जिभ्या कही, त्वचा जानिये कान । पांचौ इन्द्रिय ज्ञान की, जानै ज्ञान सुजान ॥१६९॥ गुदा लिग मुख तीसरा, हाथ पांव लखि लेह । पांचौ इन्द्रिय कर्म की, इनही में सब देह ॥१७०॥ पृथ्वी हिरदे स्थान है, गुदा जानिये द्वार । पीरो रंग पहिचानिये, पान खान आहार ॥१७१॥ तपत मध्य पावक बसै, नैन जानिये द्वार । लाल रंग है अग्नि को, लोभ मोह अहंकार ॥१७२॥ जल को बासो भाल है, लिंग जानिये द्वार । मैथुन कर्म अहार है, धोरो रंग निहार ॥१७३।। वायु नाभि में बसत है, नास जानिये द्वार । हरो रंग है वायु को, गंध सुगंध अहार ॥१७४॥ अकास सीस में बसत है, श्रवण जानिये द्वार । शब्द हि शब्द अहार है, ताको श्याम विचार ॥१७५॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com