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[६१] बड़ा संतोष बोध। चार घरी एक पहर विवेखा, चार पहरका दिन एक लेग्वा । सात वार दुनैत्तर आना, येहि विध पाख भयो प्रवाना । दोय पारख एक मास बखानी, तीन चौकडी वर्षहि जानी । आगे देखो ताको लेखा, धर्मदास अब कहौं विशेखा। निस वासर पुनि होय जबही, कूर्म अहार सूर ले तबही । निस चंदा पुनि कीन्ह प्रगासा, वासर सूर कीन्ह रहिवासा । अमी चंदके पेट रहाई, ताका लेख कहौं समुझाई । कूर्म अहार चंद इमि लीन्हा, घरी घरी घटती तब कीन्हा । पाख दिना लग भौ परगासा, पूरण चंदा भये निवासा । ब्रत अखंडित पूनौ सोई, यह चौका कूम कर होई । ताते व्रत बंस कहां दीन्हा, अंस बचाय जीव कर लीन्हा । यह सुन कूर्म हर्ष मन आई, पुरुष वचन जब कहैं समुझाई ।
धर्मदास वचन । साहेब कहेउ भेद हम पेखा, अब भाखौ पवन कर लेखा। पवन भेद मोहि कहौ समुझाई, वचन तुम्हार हिरदे लौलाई । कहवां ते यह पवन उठावा, दिसा भेद मोहे कहि समुझावा । ताहि पवन के नाम बुझाई, तत्त भेद मोह देहो बताई। सुर्त सम्हार चरन चित देई, साहेब मोहे अपन कर लेई ।
सतगुरु वचन । धर्मदास सुन पवन न पानी, कूर्मके मुख पवन उतपानी । चारों और पवन उठ आवा, ताकर भेद कोई नहि पावा । कूर्म माथ मैं कहौं बखानी, सज्जन संत कोई कोई जानी ।
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