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बड़ा संतोष बोध।
[६०] अष्टंगी देखा धर्मराई, तासों रति संयोग बनाई । आद्याके विधि शिव मुरारी, मथ जलनिधि हेरिन झारी । अष्टंगी ते भौ विस्तारा, सब रचना यह कीन्ह हमारा । विनती कूर्म पुरुष सों लाई, तुम सुत सीस हमार छिनाई । साखी-वचन तुम्हारे जानेऊ, राख शब्द की कान । नीर जलनिधि सोषके, मेटत सब उतपान ॥
चौपाई। छूछ उदर अब भयो हमारा, अहो पुरुष अब देहो अहारा । बानी पुरुष उधर ते कीन्हा, चाहौ कूर्म मांग तुम लीन्हा । साखी-ना कछू भोजन चाहौं, ना कछू करौं अहार ।
चंद सूर जब पाइ हौं, तब लेहौं सिर भार ॥ चंद सूर चल आइ हैं, तब मैं करौं अहार । चंद सूर पहुंचे नहीं, तौलौं लीलो संसार ।
चौपाई। पुरुष वचन तब कहैं विचारी, भोजन सूर पहर लेवो चारी। ससि भोजनका कहौं विशेषा, चारि घरीको राख विशेषा । अमृत छीन छीन तुम लेहूं, पीछे संपूरण कर देहूं । चंद तेज धर्मनि इमि हानी, सूर तेज जिमि बहुत बखानी । कूर्म पुरुष वचनहि देखा, घरी पहर को बांधेउ लेखा । छिन औ पलक डंड प्रवाना, घरी पहर का कहौं ठिकाना । षट् बफको पल एक होई, षट् पलको छिन जानहु सोई । दश छिनका एक डंड बखाना, दोय डंड एक घरी प्रवाना ।
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