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बड़ा संतोष बोध
आठ माथ पृथ्वी सों माथा तीन छीन ले ताका चौदह भुवन
अधर पवन सों जीव ताहे पवनका जानें
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भिन्ना, आठ दिसा भये ताकर चीन्हा । गयेऊ, धर्मराय तेहि ग्रासन कियेऊ । बनाई, सोई रूप नर केर सुभाई । उतपानी, चलेउ रंध्र सो अधर समानी । नांऊ, कर्मज काट करै मुक्ताऊ । ताहे पवन का पारस नामा, होय संयोग उठे जब कामा । बाहेर होयके देह जगाई, उठै बिन्द तब चल मनसाई । रितु बसंत त्रियजा दिन होई, स्वांति पवन परे पूरन सोई । धर्मदास तोहे कहौं विचारा, शून्य परै सो भेद निनारा । स्वांती पवन छुवे नहिं पावै, चिन्द अकेला जो उठ धावै । ताते शून्य होय पुन जोई, कहौं भेद चित राख समोई । तन तत्व बिंदो गहो जोई, ताते बांझ होय पुनि सोई । उतपन पवन कहीं मैं सोई, स्वांती पवन लै संपुट होई । तौन नाम सुन हंसा पावैं, कहैं कबीर सो लोक सिधावैं । चलत बिन्द तीनों मुख धाई, अरघ नाम अधर है चढ जाई । अढाई अक्षर मों संसारा, अरध नाम सों लोक पसारा । तौन नाम हैं अधर निवासा, कायातें बाहेर परकासा ।
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साखी -धरन अकाश के बाहिरें, जोजन आठ प्रवान | तहां छत्र तनि राखेऊ, हंस करें विश्राम || साठ कोसके ऊपरैं, अकह नाम
निनार । उतरें पार |
तहवां ध्यान लगावही, हंसा
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