________________
ग्रंथ गर्भावलि |
|
कैसा ।
[ ६९ ] द्वादश तिथि और भृगु वारा, चंद्र चले जो जलकी धारा । कन्या होय बहुत गुनवंती, होवे रूप धीरज हैरंती । जमे नीर तो येही फल होई, नातो नीर जमे नहि कोई | तेरश शनिश्चरका एही बिचारा, चंद्र सूर बहे एके लाग । जलतत्व उन बेरियां आवे, जामे पृथ्वी आन समावे | पुरुष होय धन बहुत अपारा, राजा रंक चले तेहि लारा | जमे नीर तो होई है ऐसा, ना तो कंद्रप जमे न चतुर्दशी रवि दिन होई, सुर चले पृथ्वी की चोर ठगके फांसी डारे, पाडे बाट मनुष्यही कुबुधि जाही में होय अपारा, बेदक लगनका एही बिचारा | सोम अमास बेदक होई, ता दिन संग करो मत कोई । जो कबु संग करे जन कोई, के अंधा के निरधन होई। सूर चले जलमधकी धारा, चोर चुगल होय वटपारा । के घर फोरे लोकनको राती, के निरधन के ठगको संघाती । शुक्ल पक्ष शक्ति की देहा, ताहि लगनमें करो उरेहा । धूर मंगल से परिवा पेखो, चले सूर पृथ्वीसे देखो । पुरुष होय बहुत गुन अपारा, *
देई । मारे ।
बहु ज्ञानी धनवंता होई, इस विध जुगत साधो जो कोई । ना तो बुंद जमे नहि नीरू, अफल जाय अस कहे कबीरू । बुद्ध बीज जमे जो भाई, चंद्र चले सूरज की देई । पुरुष होय जो जोगको साधे, त्रिया को पुरुष नहि आराधे | बिना तत्व जमे नहि नीरू, जो कोइ ज्ञानी देख शरीरू ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com