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दुर्लभ योग।
दुर्लभ योग संग्राम कठिन खांडे की धारा । थाके शंकर शेष और जिव कौन विचारा ॥ सुर नर मुनि जन पीर रहे सब भौजल वारा । गुरुगम गहहि बिचार सो उतरै पारा ॥ सन्तोषी सम भाव रहै निर्वैर निरासा । सो जन उतरै पार काल नहि करे विनासा ॥ नहि आगे की चाह पीछे संशय नहि कोई। रमै जु सिंगीनाद पियाना दे गत कहिये सोई ।। ना शत्रु ना मित्र संगम दूजा नहि कोई । इस विधि रहे सदाय संत जन कहिये सोई ।। ना काहू से नेह देही का सुख नहि चाहै । सीत ऊष्ण सिरपर सहै आदि अंत ऐसी निरवाहै ।। छांडे सकल हि स्वाद मीठा अरु खारा । इन्द्री भोग न करही सो योगी ततसारा ।। घर बन एको रीत राचै नहिं भाई। कनक कामिनी त्याग रहे उनमुनि लौ लाई ॥ ऐसी रहनी जो रहे ताहि लेहु पहिचानी । कहै साँच रहै काछ सो प्यारा है प्रानी ।। शब्द सरोतर कहै मिथ्या कबह नहि बोले। खोजे पद निरबान बन बन काहे को डोले ॥
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