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बड़ा संतोष बोध।
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सतगुरु वचन । पौन जीव ब्रह्मंड बनाई, ता पीछे नाभी चलि जाई । नयन नासिका कीन्हौ साखी, मूल कँवल सुर्त गहि राखी । चक्षु जोत तहां बरै मसियारा, हृदय कँवल ब्रह्मंड मँझारा । साखी-बैठत जीव जायके, द्वीपन क्षेत्र मंझार । कहे कबीर धर्मदाससों, ऐसा कीन्ह विचार ।
चौपाई। सीस सँवार बांह निरमाई, कंठ कँवल मुख हृदय बनाई । तापर छव एक बरण संवारा, पौन जीवसों भौ उजियारा । कँवल संबुज औ सेत है राता, नाभी कीन्ह सकल पुनि गाता। तेहि पीछे दोय खंभ लगाई, रचि काया पुनि जीव समाई । सत्य पौन पुरुष के स्वांसा, सोकीन्हों जीवन संग बासा । ताको मेद सुनो धर्मदासा, तौल लेहुं सत्ताईस मासा । छिन छिन पल पल आवै जाई, जीवको संधि लखे नहि पाई । प्रथम घरी ब्रह्मंड रहाई, दूजे घरी नाभि चल जाई । साखी-तीजे घरिके बीततै, फिर तहवा चल जाई ।
यह विधि रहनी जीवके, कहें कबीर समुझाई ॥
- धर्मदास वचन । दयावंत प्रभु और बताई, छूटे हंस कौन दिश जाई । तौन ठांव मोहे देही बताई, तहां सुर्त राखौ ठहराई ।
सतगुरु वचन।। साखी-उत्तर दिशा होय निकसैं, अधरहि बैठे जाय ।
सो मारग बांकी है, सतगुरु देहि लखाय ॥
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