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बड़ा संतोष बोध |
[ ५५ ]
धर्मदास वचन |
परवाना, तीन लोकका कहो ठिकाना ।
साहेब बचन कहो
सतगुरु वचन ।
निदाना ।
ब्रह्म लोक लिंग अस्थाना, ताते उत्पति होय विष्णु लोक नाभी विस्तारा, शिवका लोक हृदय मंझारा । चौथा लोक अधर अस्थाना, कहैं कबीर मैं कहौं निदाना । ताहि लोकको ध्यान लगावें, चलते हंस काल नहि पावैं । सप्त पंखुरी कहौं ठिकाना, धर्मनि वचन सत्यके माना । श्रवण दोय पंखुरी बानी, सब रस लेय सुनै सुख मानी । तीजे नयन पंखुरी आनी, चौथे दूजा नयन बखानी । पांचौं पंखुरी कहौं विचारा, रसना शब्द उठे अहंकारा । छठवें पंखुरी ईन्द्री जानो, उतपति बिन्दु लै डारै तानी । साते पंखुरी हेठ बतावा, खोज कँवल अस्थिर घर पावा । पंखुरी सात कँवल हैं एका, भीतर ताहै जीव मन टेका। ताहै कँवल में तार लगाई, सोई तार कहँ चीन्हो भाई । सो वह तार अधर लै राखा, जो कोई साधु हिरदय ताका | ताहे तारका बहुत पसारा, खंड ब्रह्मंड पताल समारा । ताहे तारमें डोरी लागी, विरला चीन्है हंस सुभागी । ताकर भाव है सेतहि अंगा, नाम निःक्षर ताके संगा । साखी - कबीर धर्मदास निःक्षर, गुप्त निःक्षर नाम । कहैं कबीर लख पावैं, होवें जीवको काम ||
धर्मदास वचन |
साहेब कहौ जीव किमि आवा, नरदेही कैसै के पावा ।
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