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[ ५७] बड़ा संतोष बोध।
धर्मदास वचन। साखी-चार खूट धरति है, आठ दिशा है पौन । सतगुरु कहौ विचारकै, हंसाके दिश कौन ।।
सतगुरु वचन । पश्चिम सूर कीन्ह रहिवासा, पूरब चंद कीन्ह प्रगासा । दक्षिण दिशा बाट नहि पाई, उत्तर दिशा लोक दिखाई । माखी-उत्तर घाटी उतरे, पांजी बैठे जाय ।
तहां ते सुर्त लगावें, पुरुष के परसे पांय ॥ धरती अकाश के बाहिरै, तहां शब्द निरवान । जहां जीव चढ बैठे, काल मर्म नहि जान ।
चौपाई।। प्रथम हंस सुखसागर जाई, सुखसागरमें दर्शन पाई। सुखसागर के येह संदेसा, उडगण पांती लागे कैसा । हंसा पैठ कीन्ह अस्नाना, उगे लिलाट जो षोडस भाना । लागी डोर शब्द की नेहा, अस पांजी है अधर विदेहा । लागी डोर सुर्तकी तारा, चढ हंसा पांजी उजियारा । चढ के हंस अधर सो पेखा, हंसा उलट ठाट को देखा । भल साहेब कीन्हे मोहे दाया, छूटे सकल मोह औ माया । पुष्प माह जस बास समाना, हंसा धरै पुरुष इमि ध्याना। इहविध जीव अमर घर जाई, धर्मदास सुनियो चित लाई ।
धर्मदास वचन । सतगुरु भेद सत्त मैं माना, द्वीप खंडका कहा ठिकाना । काया खंड कही मोहै भाखी, जाते जीव अमर घर राखी ।
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