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बड़ा संतोष बोध।
[ ६४] साखी-एक अधर होय आवही, एक अधर होय जाय ।
एक अधर कर आसन, अधरहि मांहि समाय ॥ अधर करै घट आसन, पिंड झरोखे नीर । में अदली कदली बसौं, दया क्षमा सरीर ॥
म धर्मदास वचन । कहेउ तत्व मेरे मन माना, अब प्रभु कहिये सुतं ठिकाना । कहां सुर्त के उतपन भयेऊ, कहां नित दूसर निरमयऊ । कैसे के घट आन समानी, हो समर्थ मोहि कहो बखानी। सुते नित संगम किमि भयेऊ, पसु पक्षी कैसे निरमयऊ ।
सतगुरु वचन । मूल नाभते शब्द उचारा, फूट नाल तब भये दोऊ धारा । स्वाती पवन अधर सो आई, सुते नित संग लागा धाई । ताका भेद न कोई पाई, पसु पक्षी नल रहै समाई । पसु पक्षी मों रत हो गयेऊ, सुर्त बोध वह शब्द न गहेऊ । जो यह शब्द का करै पसारा, सुतं नित लै करै सम्हारा । गहे शब्द तब लोक सिधाई, बिना शब्द पसु पक्षी भाई । बिना शब्द जिमि घट अंधियारा, छिन छिन ता कहं काल अहारा। शब्द सुर्त नित एक ठौरा, तब मुख वचन होय कछु थोरा। अगम तत्व तुम मथौ सरीर, नित नाम भये सत्य कबीर । निर्त धरै शब्द की आसा, सुते नाम तुमहो धर्मदासा । सुर्त निर्त सो बांधे नेहा, पावै नाम हंस की देहा । कथे ज्ञान भाखेउ टकसारा, धर्मदास तुम करो विचारा । हम तुम कीन्ह सकल पसारा, लोग न मानत मूढ गंवारा । मथुरा बेठके शब्द सुनाई, धर्मदास गहे सतगुरु पाई ।
॥ इति ग्रंथ बड़ा संतोषबोध सम्पूर्ण ॥
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