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पवन स्वरोदय । मैथुन भय श्रम मरत में, सुषमन वित्तम होय । सहज कबहुँ चाले नहीं, मोतीदास भल जोय ॥५२॥ चैत्र सुदी परिवा लगे, प्रात पृथ्वी जल देख । आसन पद्म लगाइये, पश्चिम मुख कर पेख ॥५३॥ बहु वरषा रु प्रजा सुखी, अरु सुरभिक्ष प्रधान । दहिने पृथ्वी जल चले, मध्यम साल बखान ॥५४॥ अग्नितत्व ता दिन चले, बरषा थोरी होय । आग लगे मरही पड़े, अन्नसु महँगा जोय ॥५५॥ बायु तत्व आँधी करे, वरषा सूक्षम लाग। मूसा टिड्डी आवहीं, वायु पीर सीतांग ॥५६॥ जग में विग्रह होयमी, अन तृण थोरा जान । संवत भर फल यों करे, मोतीदास बखान ।।५७।। तत्व अकाश बरषा नहीं, मरही काल परंत । सुषमन है आपुन मरे, परजा विघ्न अनंत ॥५८।। जोई परीक्षा चैत्र की, सोई मेष संक्रात । वायु अग्नि सो निष्ट हैं, जल पृथ्वी कुसलात ॥५९॥ पृथ्वी पीत रंग बैस है, आंगुर बारह जान । चिकनो मीठो स्वाद है, पूरब दिशा बखान ॥६०॥ विप्र वरण जल तत्व है, आंगुर सोरा जान । श्वेत रंग पश्चिम दिशा, खारो स्वाद बखान ॥६१।। अग्नि लाल रंग चरपरो, आंगुर चार प्रमान । बरन क्षत्री दक्षिण दिशा, मोतिदास पहिचान ॥६२॥
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