________________
भूमिका
[ २३
'विद्यानिष्ठवसिष्ठगोत्रजनुषा तेन प्रणीते महा
काव्ये कृष्णकुतूहलेबरहुतिः सर्गोऽजनिष्टाष्टमः ।' __ अतः यह स्पष्ट है कि रामचंद्र भट्ट स्वयं को लक्ष्मण भट्ट का पुत्र और वल्भभ का अनुज मानते हुए भी अपना वासिष्ठ-गोत्र स्वीकार करते हैं।
चन्द्रशेखर भट्ट वृत्तमौक्तिक' में कृष्णकुतूहल-महाकाव्य के प्रणेता रामचंद्र भट्ट को 'प्रवृद्धपितामह' शब्द से सम्बोधित करते हैं। अतः यह निर्विवाद है कि नाम-साम्य से रामचन्द्र भट्ट पृथक्-पृथक् व्यक्ति नहीं है अपितु वही वल्लभानुज ही हैं । ऐसी अवस्था में गोत्रभेद क्यों ? इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन प्रमाण तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु गोपाललीला-महाकाव्य के सम्पादक श्री बेचनराम शर्मा सम्पादकीय-उपसंहार' में लिखते है :
'इयं वसिष्ठगोत्रोद्भवत्वोक्तिर्मातामहगोत्राभिप्रायेण ऊहनीया।'
इसी बात को स्पष्ट करते हुये भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 'वल्लभीय सर्वस्व'3 में लिखते हैं :
'लक्ष्मण भट्टजी के मातुल वसिष्ठ-गोत्र के ब्राह्मण अपुत्र होने के कारण इनको (रामचन्द्र को) अपने घर ले गये थे।'
इससे स्पष्ट है कि लक्ष्मण भट्ट के मामा जो अपुत्र थे ; उन्होंने लक्ष्मणभट्ट से अपने नाती रामचंद्र को दत्तक रूप में ले लिया । दत्तक रूप में जाने के पश्चात् उत्तर भारत की परम्परा के अनुसार गोत्र-परिवर्तन हो ही जाता है। लक्ष्मण भट्ट के मातुल वसिष्ठगोत्रीय थे अत: रामचंद्र का गोत्र भी भारद्वाज न हो कर वसिष्ठ हो गया। यही कारण है कि रामचंद्र भट्ट ने स्वयं का गोत्र वसिष्ठ ही स्वीकार किया है।
वसिष्ठ-गोत्र का उल्लेख करते हुए भी धर्म (दत्तक) पिता का नाम न देकर सर्वत्र लक्ष्मणभट्ट-तनुज और वल्लभानुज का उल्लेख करना अप्रासंगिक सा प्रतीत होता है किन्तु तत्त्वतः विरोध न होकर विरोधाभास ही है । इसका मुख्य कारण यह है कि रामचंद्र भट्ट ने पुरुषोत्तम-क्षेत्र में वल्लभाचार्य के सहवास में रह कर
१-देखें, पृष्ठ १०५, १०७ २-देखें, गोपाललीला पृ० २५५ ३-भारतेन्दु ग्रंथावली भाग ३, पृ० ५६८