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पोदकीरुते गतिप्रकरणम् । ( १३९) उत्लुत्य या दर्दुरवत्प्रयाति पथि स्खलंती खलिता मता सा॥ तारापि भूत्वा तरुकोटरादौ निलीयते सा पुनरंधतारा॥ ॥११३॥ गोमूत्रिकासर्पवदंबरे या वक्र व्रजेत्सा खलु वक्रतारा॥सा दूरताराकथितेह पूर्व तारा भवेद्याति ततोऽतिदरम्।। ॥११४॥ लुठंत्यवन्यां गुलिकेव तारा या याति पद्भयां गुलिकिर्मता सा।।गत्वोर्द्धदेशं गगने ततो या तारा भवेत्सा कथितोर्द्धतारा ॥ ११५ ॥ अच्छिन्नवेगा शरवत्प्रयाति निवृत्य नायाति च कांडतारा ॥ पृष्ठप्रदेशेन नरस्य वामादवाममागच्छति पृष्ठतारा ॥ ११६॥
॥ टीका ॥ ति । अर्धपथप्रदेशात्पुनर्निवर्तेत सा कपाटसंज्ञा स्यात् ॥ ११२ ॥ उत्प्लुत्येति ।। या द१रवदुत्प्लुत्य स्खलंती प्रयाति सा स्खलिता मता। या तारा भूत्वापि तरुकोटरादौ निलीयते सा अंधा भवति ॥ ११३ ॥ गोमूत्रिकेति ॥ या गोमूत्रिकावत्सपंवच्च अंबरे वकं ब्रजति साखलु निश्चयेन वक्रतारा । या पूर्व तारा भवेत्ततोऽतिदूरं याति साइह दूरतारा कथिता प्रतिपादिता ॥११॥लुठंतीति ॥ या गुलिकेल पद्भयां लुठंती अवन्यां याति सा गुलिकिर्मता।या ऊर्द्धदेशं गगने गत्वा ततः तारा भवेत्सा ऊर्द्धतारा ॥ ११५॥ अच्छिन्नेति ॥ या शरवद्वाणवदच्छिन्नवेगा प्रयाति ततो निवृत्य नायाति सा कांडतारा । या पृष्ठप्रदेशे वामादवाममागच्छति
॥ भाषा ॥
छी निवर्त हो आबे ताकी कपाटसंज्ञा है ॥ ११२ ॥ उत्प्लुत्येति ॥ मेढकीनाई उछलकरके गिरत पडत चले वाळू स्खलिता कहै हैं, और जो तारा दीखके फिर वृक्षकी कोटरादिकमें लीन होजाय बाकी अंधा संज्ञा है ॥ ११३ ॥ गोमूत्रिकात ॥ जो तारा जैसे मार्गमें गो मूत्र कर है, जैसे सर्प टेटो चलैहै तैसे आकाशमें टेढी चले वाकू बक्रतारा कहैं हैं, और जो प्रथम दीखकरके फिर अतिदूर चली जाय वाकू दूरा कहै है ॥ ११४ ॥. लुठंतीति॥ जो गुलिकाकीसीनाई पाँवनकर लोटती हुई पृथ्वीमें चलै चाकू गुलिकी कहे हैं और जो तारा ऊंची आकाशमें जायकरके दीखे ताईं ऊतारा कहैहैं ॥ ११५ ॥ अच्छिन्नति ॥ जो तारा बाणकीसी नाई अखंड वेग चली जाय और पछिी बगदके नहीं आवे वाकू कांडतारा कहै हैं, और जो पीठपीछे वामभागसूं जेमने भागकू गमन करे वा
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