Book Title: Vasantraj Shakunam
Author(s): Vasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
Publisher: Khemraj Shrikrishnadas

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Page 598
________________ (३२) स्वमाध्याय । करणं यदि पश्यति ॥ अथवा तैलसंयुक्तं पाचनं दुर्गतिर्हि सः ॥ ७६ ॥ नग्नस्य मुण्डितस्याथ दक्षिणस्यां दिशि ध्रुवम पिशाचैः श्वपचैश्चाथ नयनं प्राणसंकटम् ॥ ७७ ॥ यस्योपरि स्वप्रमध्ये पिता माता च बान्धवाः ॥ कुपिताः स्युस्तस्य नाशो झटित्येव भवेद्ध्रुवम् ॥ ७८ ॥ काषायवस्त्रसंवीनं दिशावल्कलधारणम् ॥ स्वप्ने यः पुरुषः कुर्यात्स यायाद्यमसंनिधौ ॥ ७९ ॥ स्वप्ने योऽकालजलदघनच्छायां प्रपश्यति । अथवा वातसंमिश्रां वृष्टिं सक्लेशभाग्भवेत् ॥ ८० ॥ दिनमस्तं गतादित्यं रात्रिं चन्द्रमसा विना । नक्षत्रैश्च विनाकाशं दृष्ट्वा गच्छेद्यमालयम् ॥ ८१ ॥ तैलिकैः कुम्भकारैश्व सह यस्य पलायनम् || स्वप्ने भवति तस्य स्याच्चित्तखेदो दिवानिशम् ।। ८२ ।। स्वममध्ये च यो निद्रां क्षुते क्षौद्रेऽथवार ॥ कुर्यात्तस्य भवेद्भूरि दूरदेशप्रवासनम् ॥ ८३ ॥ वामलूरं चावकारं कण्टकप्रवरं द्रुमम् ॥ शेतेऽथवा भालयति स विपत्तिं प्रपश्यति ॥ ८४ ॥ करीषतुषकंकालकाष्टलोष्टेषु यः पुमान् ॥ स्वप्ने तिष्ठति वा शेते स महादुःखमश्रुते ॥ ८५ ॥ खायां मृतशय्यायां शिलायां धूलिसे मिली हुई देखता है, अथवा तेलसे युक्त पाचन देखता है, वह दुर्गतिको पाता है ॥ ७६ ॥ स्वप्नर्भे नंगे शिरमुँडे हुए प्राणिको पिशाच वा चाण्डाल दक्षिण दिशामें लेजावें तो उसको प्राणबा - धाहो||७७||स्वप्नके बीच में जिसके ऊपर माता पिता बन्धु क्रोधित होते हैं, शीघ्र उस पुरुषका नाश होता है ॥ ७८ ॥ जो स्त्रममें कषायसे रंगवस्त्र पहरे वा नंगाहो वा भोजपत्रको धारण करै वह यमराज के समीपं प्राप्त हो || ७९ || स्वप्न में जो पुरुष असमय बादलों की छाया देखताहै, अथवा वायुयुक्त वृष्टिको देखता है वह दुःखित होता है ॥ ८० ॥ सूर्यरहित दिनको चंद्रमा रहित रात्रीको नक्षत्रों के बिनाआकाशको देखकर यमराजके स्थानको जाता है; अर्थात् मरता है ॥ ८१ ॥ जो स्त्रनमें तेल साथ कुम्हार के साथ भागता है, रात्रदिनमें उसके मनमें दुःख होता है ॥ ८२ ॥ जो स्वप्न में मक्खी के सहते में अथवा ऊपर भूमिमें निद्रा करे छींके उस पुरुषका दूर देशमें वासहो ॥ ८३ ॥ मई कूड़ा कर्कट तीक्षण कांटेवाले वृक्षपर जो सोता है अथवा देखता है वह विपत्तिको प्राप्त होताहै ॥ ॥८४॥ जो पुरुष करीष (उपला ) भूसी हाड़का पिंजर काष्ठ ढेलों के मध्यमे स्वप्न में सोता है ' वह महादुःख भोगता है || ८५ ॥ चारपाईपर मरे हुए की खाटपर पत्थरपर जो बैठता है वह मृत्यु - Aho! Shrutgyanam

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