Book Title: Vasantraj Shakunam
Author(s): Vasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
Publisher: Khemraj Shrikrishnadas

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Page 587
________________ भाषाटीकासमेत । प्रपूर्यते ॥ ११० ॥ नन्द्यावर्तः स्वस्तिकश्च दूर्वामाङ्गल्यदोरकः ॥ स्वमे दृष्टिपथं यायाद्यस्य स स्यान्नृपाणीः ॥ १११ ॥ व्यजनां कुशवज्राणि भाजनध्वजतोरणान् ॥ स्वमे यः पश्यति पुमान्स्पृशेद्वा स प्रवर्धते ॥ ११२ ॥ विलासिनी कुचा भोगपरिमर्दन चाटुभिः ॥ क्रीडाभी रमते यश्च स स्त्रीधनमंत्रामुयात् ॥ ११३ ॥ खगपट्टिशशाङ्गसिपुत्रीचक्रगदाः शिताः ॥ स्वप्ने पश्यति चेत्पाञ्चजनं स लभते महीम् ॥ ॥ ११४ ॥ शातकौम्भविदूरेजवत्रभूषितमेदिनीम् ॥ स्वप्ने यः पश्यति पुमान्स स्याच्छुभशतैर्युतः ॥ ११५ ॥ तुलाया तोलनं पश्येद्धान्यशस्त्रादिवस्तुनः ॥ शुभलाभो भवेत्तस्य दर्शनं वा करोति यः ॥ ११६ ॥ शालितन्दुलमुद्गानां कणान्पश्यत्यथ स्वयम्।। आदत्ते करमध्ये वा भुङ्गे वा सभवेद्धनी ॥११७॥ वैकुण्ठपीठनिलयं चतुर्भुजधुरंधरम् ॥ श्री हरिं वीक्षये स्वने सस्याद्योगिवरो नरः ॥ ११८ ॥ लक्ष्मी सरस्व ती सूर्यबिम्बं गोत्रस्य देवताम् ॥ स्वप्ने दृष्ट्वा जागृयाद्यः स धन्यो मान्य एव च ॥ ११९ ॥ सरोवरं सागरं च प्रपूरितजलैर्युतम् ॥ स्वप्नमें देखताहै उसके धन पूर्ण होता है ॥ ११० ॥ नदी भ्रमर मांगालेक पदार्थ दुर्वा माङ्गल्य दोरक स्त्रप्नर्मे जिसको दीखते हैं वहभी राजों में अग्रणी होता है ॥ १११ ॥ जो पुरुष स्वमें पंखा, अंकुश, वज्र, भाजन, ( पात्र ) ध्वजा ( पताका ) बन्दनवार देखता है, वा स्पर्श करता है वह वृद्धिको प्राप्त होता है ॥ ११२ ॥ स्त्रीके स्तनको भोग के समय मर्दन करके क्रीडाओं को करके जो रमण करता है वह चतुर स्त्रीरूपी धनको प्राप्त होता है ॥ ११३ ॥ तेज तलवार पट्टिश धनुष छुरी चक्र गदा । जो स्त्रममें देखता है वह पृथिवीको पाता है ॥ ११४ ॥ जो ननुष्य स्वममें सुवर्णकी भूमिको हीरों से भूषित देखता है वह सैंकड़ों शुभ से युक्त होता है ॥ ११९ ॥ वान्य शस्त्रादि वस्तुओं को जो तराजू से तुलता देखे वा तोले उसको अच्छा लाभ होवे ॥ ११६ ॥ जो आप साठीके चावल वा मूंगके कणें (किन्कीको) देखता है, वा हाथमें लेता है अथवा खाता है वह धनबानू होता है ॥ ११७ ॥ स्त्रममें जो वैकुण्ठपति चारभुजाको धारण करते हुये श्रीभगवान्को देखे बह पुरुष योगियोंमें श्रेष्ठ हो ॥ ११८ ॥ लक्ष्मी, सरस्वती, सूर्यकी परछाईंको गोत्रके देवताको जो स्वप्नमें देखकर जागे वह मनुष्य धन्य और पूजने योग्य होता है ॥ ११९ ॥ पूर्णजल से युक्त ताला Aho! Shrutgyanam (२१)

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