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सके, उन्होंने अपना कर्त्तव्य निभाया। परिणाम चाहे कुछ भी रहा हो। यद्यपि आचार्य के हृदय से निकलने वाले कठोर शब्द एवं अधम उपमाएं किसी को खटकने वाली हो सकती है, किन्तु यदि गहराई एवं तटस्थ बुद्धि से चिंतन किया जाय तो स्पष्ट है, उनका किसी के प्रति द्वेष अथवा वैर भाव नहीं था। मात्र श्रमण धर्म की पवित्रता बनाये रखने की भावना से प्रेरित होकर एवं दुराचारियों से संघ को बचाने के शुभ भाव से कठिन शब्दों का प्रयोग किया है । ऐसे शब्दों के नमूने आगम में मिलते हैं। किन्तु आज के समाज सुधारक कहलाने वाले लोग संस्कृति घातकों के साथ सम्मान सूचक शब्दों का व्यवहार करने की सलाह देते हैं। जो एक दम अनुचित है। धर्मघातकों एवं दुराचारियों के साथ सम्मान सूचक व्यवहार करना दुराचार को पोषण देना है। उनका तो खुला बहिष्कार होना चाहिए, तब ही समाज में सुधार संभव है।
__ प्रस्तुत पुस्तक की लेखमाला सम्यग्दर्शन पत्रिका में ५अगस्त २००१ से ५अगस्त २००३ तक अंकों में चली। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार की पुस्तक का प्रकाशन एवं समाज में प्रचारित होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान में हमारे समाज का साधु वर्ग जिस दौर में गुजर रहा है, वह दौर आचार्य श्री हरिभद्रसूरि जी के समय से भी शिथिलता में आगे बढ़ा हुआ है। ऐसे समय में समाज को आगाह करना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है ताकि समाज में चेतना का संचार हो, इसी भावना को लेकर इसका प्रकाशन किया जा रहा है। इस पुस्तक को स्वयं पढ़े और अपने सभी मिलने वालों को पढ़ावे, चतुर्विध संघ सत्य धर्म को जोड़ने में पुरुषार्थ करें। "नेमिचंद बांठिया" ।
यह पुस्तक कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप के नाम से ब्यावर से अ. भा. सुधर्म संस्कृति रक्षक संघ जोधपुर से छपी थी। उसमें सुधारकर वंदनीयव्यक्ति अवंदनीय कैसे हो जाते हैं, यह दर्शाने के लिए वंदनीय-अवंदनीय नाम से छपवायी है। लाभान्वित बनें। इसमें श्री राजशेखरसूरिजी संपादित संबोध प्रकरण में से गाथाओं के मूल स्थान दिये है । यही। पुस्तक स्वयं, जो कहना है, वह कह रही है अतः प्रस्तावना में विशेष कुछ नहीं लिखा।
- जयानंद