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लगता है और असंयमियों का अनुमोदन होता है। जिससे जिन धर्म की अवहेलना का पाप लगता है ।
२. कुशीलियों को आदर सम्मान देने वाला, उनका पक्ष करने वाला और तटस्थ रहकर निष्क्रिय रहने वाला, कदाचार का समर्थक पोषक एवं चाहक है । वह धर्म शासनाधीश भगवान् महावीर के उत्तमोत्तम धर्म, उत्तम आचार का विरोधी एवं शोषक है ।
३.सावद्य आचरण करने वाले एवं जिनेश्वर की आज्ञा का भंग करने वाले कुमार्गी साधु तो अधर्मी है ही। उन अधर्मियों को वंदनादि करना अधर्म समर्थन एवं धर्म का खण्डन करना है ।
४. किसी व्यक्ति की गाढ़ी कमाई का धन, कोई चोर लूट ले तो वह लुटाया हुआ व्यक्ति, चोर को आशीर्वाद नहीं देगा। उसकी आत्मा में कितना दुःख होता है - यह समझना बिलकुल सरल है। उसी प्रकार निर्ग्रन्थ धर्म के रसिकों-प्रेमियों के सामने जब असाधुता के प्रसंग उपस्थित हों, बढ़-चढ़कर आरम्भ समारम्भमय प्रवृत्तियाँ होती हों, सावद्य कार्य किये कराये जाते हों, नये-नये आडम्बर किये जाते हों, साधु वेशधारी साहूकार धर्मरूपी धन को लूट रहे हों, अहिंसक वेशधारी हिंसक कार्यों में संलग्न हों, तो उन्हें भारी दुःख होता है ।
५. जिस प्रकार दुराचारिणी को सदाचारिणी नहीं सुहाती, वह उसे देखकर जलती है, उससे द्वेष करती है, उसका अनिष्ट चाहती है, उसी प्रकार कुसाधु को सुसाधु नहीं सुहाते हैं, वे सुसाधुओं से द्वेष करते हैं, उनकी निंदा करते हैं, अपमान करते हैं, अपने बचाव के लिए कहा करते हैं कि-'अभी पंचम काल' में शुद्ध संयम के पालन करने वाले कहां है ? जो शुद्धाचारी है, वे ढोंगी हैं, कपटी हैं, हम ढोंग करना नहीं जानते जैसे पले वैसा पालते हैं ।
यानी गंजे को सारी दुनिया गंजी ही नजर आती है ।
बंधुओ ! धर्मप्रिय जन को धर्म की दुर्दशा देखकर खेद होना स्वाभाविक है। जिसके हृदय में अपनी पवित्र संस्कृति के प्रति प्रेम हो, वह बिगड़ती हुई स्थिति में मूक नहीं रह सकता। आचार्य श्री भी चुप नहीं रह
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