________________
स्वीकार करे जबकि 'कुगुरु' अपने भक्तों को गुर देते हैं 'गुरु एक, सेवा अनेक' अर्थात् मात्र हमें ही गुरु रूप में माने अन्य को नहीं। सुज्ञ वर्ग चिंतन मनन करावे कि सर्वज्ञ वीतराग प्रभु की बात को मान्यता देनी अथवा कुगुरुओं की सीख को ।
बंधुओ ! वर्तमान में ही कुगुरुओं का बाहुल्य एवं बोलबाला है. ऐसी बात नहीं है । वीर प्रभु के निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद से ही (पूर्वधरों का व्यवच्छेद हो जाने के कारण ) समय-समय पर साधु वर्ग में उतार-चढ़ाव के दौर चलते रहे और आगे भी चलेंगे। पूर्व में जब-जब कुगुरुओं का जोर बढ़ा, तो अनेक महापुरुषों ने अपने त्याग वैराग्य के बल पर समाज में चेतना का संचार किया, क्रियोद्धार किया । क्रियोद्धार केवल लम्बे-चौड़े धुंआधार भाषण झाड़ने से नहीं हुआ, क्रिर्योद्धार हुआ उनके चलते-फिरते जीवन्त आचरण से, उनका जीवन अपने आप में बोलता था कि साधु जीवन क्या होता है? जितना असर उपदेश का नहीं होता उससे कई गुना अधिक असर उनके आचरण का होता है।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने अपने समय के कुसाधुओं के कार्य-कलापों का जीवन्त चित्रण किया है, जिस प्रकार चश्मदीद गवाह जैसा अपनी आंखों से देखता है वैसा ही रू-ब-रू बयान करता है, उसी प्रकार आचार्यश्री ने अपने समय के कुसाधुओं का लेखाजोखा बड़ी पीड़ा के साथ किया है, साथ ही कुसाधुओं की संगति करने वाले श्रावक-श्राविका को कितना नुकसान होता है, इसका भी स्थान-स्थान पर संकेत किया है।
[प्रभु श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने भी शिथिलाचार की प्राबल्यता को मिटाने के लिए वि. १९२५ शास्त्रीय मिति आषाड़ वदि १० को क्रियोद्धार किया था ।]
यद्यपि सम्पूर्ण पुस्तक को पढ़ने पर सुसाधु एवं कुगुरुओं के स्वरूप के साथ कुसाधुओं की संगति से होने वाली हानियों का बोध हो जायगा, फिर भी कुछ बातों के नमूने बतौर यहाँ दीये जा रहे हैं
-
१. कुसाधुओं को सुसाधुओं की तरह सम्मान देने से मिथ्यात्व भी
2