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पति मकरध्वज ने भी ऐसे ही समय समय की
गये थे ।
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• सूचकों की नियुक्ति कर रखी थी ।
सूचना पाते ही दोनों राजा - रानी पूजा करने के लिए जिनालय में चले
दूसरा परिच्छेद
वाराणसी नगरी
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दक्षिण - भरतखंड की कई महानगरियों में से वाराणसी मुख्य 'मानी जाती थी । उसकी रचना अनुपम थी । प्रतिभाशाली कवि लोगों ने इसे अलकापुरी की पदवी दे रखी थी । इसके एक ओर पवित्र - पतितपावनी गंगा नदी बहती थी । भारतीय - आर्यलोग इसे पवित्र तीर्थ मानकर अत्यन्त श्रद्धा - भक्ति से यहाँ आते थे । पवित्र पर्वदिनों में इस नगरी की शोभा कुछ और ही हो जाया करती थी । इस नगरी के चारों ओर गगन चुम्बी सुदृढ़, विशाल एक दुर्ग था । बीच में कैलास शिखर के समान ऊँचे ऊँचे सात मंजिले मकान श्रेणीबद्ध दिखाई पड़ते थे । आस - पास के जिनालय और शिवालय अपूर्व शोभा वृद्धि कर रहे थे । चारों वर्ण के लोग महाराजा मकरध्वज की नीतिमय शीतल छत्रछाया के नीचे सुख वैभव का आनन्द लूट रहे थे । कुबेर के समान अनेक धनाढ्य सेठ साहुकार इस नगरी में निवास करते थे । यहाँ आर्हत- प्रजा जैनों की संख्या अधिक थी । नगरी में सब तरह से एक्य भाव था । नीति - धर्म और सत्य का पालन प्रत्येक मनुष्य करता था। जीवदया, ज्ञान प्राप्ति और निराश्रितों को आश्रय देने वाली अनेक बड़ी - बड़ी संस्थाएँ राजा और प्रजा की ओर से चलती थीं। प्रत्येक मनुष्य दीन दुखियों का दुःख बँटाने में बड़ी उत्सुकता से भाग लेता था । कलह, पर - निन्दा और पर - द्रोह का तो वहाँ नामोनिशान तक नहीं था ।
महाराजा मकरध्वज के न्याय - शासन से राज्य के सब लोग संतुष्ट थे । आबाल-वृद्ध, सभी लोग महाराजा को हृदय से चाहते थे - उन्हें अपना आराध्यदेव समझते थे । महाराज भी अपनी प्रजा को पुत्रवत् मानते और उनके मनोरंजन में
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