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क्यों करती हो ? यद्यपि मैं तुम्हारे आचार-विचार और नियमों की दृढ़ता देखकर बहुत प्रसन्न होती हूँ तथापि केवल जानने के लिए ही मैंने आपसे यह प्रश्न किया है । "
मदालसा ने मुस्कुराते हुए कहा "बहिन तिलोत्तमा ! मैं एक विवाहित वियोगिनी स्त्री हूँ । मेरे निर्दोष पति को पापी कुबेरदत्त ने बुरे विचारों से प्रेरित हो, समुद्र में धकेल दिया है। कई शुभ चिन्हों से मुझे अपने पति के पुनः मिलने की आशा है। जब तक मुझे मेरे पति देव के दर्शन न होंगे तब तक मैंने ऐसा नियम | पालन करने का निश्चय कर लिया है । प्रिय बहिन ! अपने शास्त्रों में सती और कुलीन स्त्रियों के धर्म की व्याख्या इस प्रकार है - " जो सुन्दरी पति वियोगिनी हो, | उसे सब शृङ्गार त्याग देने चाहिए । पति की अनुपस्थिति में कुलीन स्त्रियों को | गहने-कपड़ों से सज-धज कर नहीं रहना चाहिए। न मिष्टान्न भोजन करना चाहिए, और न पर पुरुष को देखना ही चाहिए । बहिन ! पहिले जैन सतियों ने जिस सतीत्व के कारण सत्कीर्ति प्राप्त की है उसका एक मात्र कारण केवल उनका उच्च आचरण ही था । जिस तरह विवाहित स्त्री को पति की अनुपस्थिति में अपना वर्तन रखना चाहिए, वैसा ही कुमारी कुलीन कन्याओं को भी उसी के समान आचरण रखना चाहिए | अपने पति के घर रहती हुई कुलीन कन्या कभी सुशोभित शृङ्गार धारण कर सकती है परंतु उसे पर पुरुष से तो दूर ही रहना चाहिए । इसी तरह कन्या को अपने माँ-बाप की आज्ञा में रहकर कन्याव्रत पालन करना चाहिए ।"
राक्षस पुत्री मदालसा के यह वचन सुनकर राजकुमारी तिलोत्तमा बहुत प्रसन्न हुई । उसने हृदय से मदालसा के वचनों का अभिनन्दन किया । यह दोनों, सहोदर बहिनों की भाँति प्रेम पूर्वक रहा करतीं और शिक्षारूपी कल्पवृक्ष के मधुर फलों का आस्वादन करती रहतीं । तिलोत्तमा, मदालसा से अच्छी शिक्षाएँ ग्रहण करती थी और उसका आदर भी वह उतना ही करती थी जितना कि एक गुरु का शिष्य को करना चाहिए । ये दोनों धर्म, ज्ञान और नीति साहित्य की चर्चा में अपना समय आनन्द पूर्वक बिताती
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