Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 92
________________ अभयदान इस जगत में दिव्य वस्तु है । इसके प्रभाव से भरतक्षेत्र में अनेक धर्म वीरों ने अपनी कीर्ति ध्वजा फहराई है और अपने पवित्र नाम को | इस विश्व में चिरस्थाई बनाकर वे शाश्वत सुख के भोक्ता बने हैं । इसलिए प्रत्येक मनुष्य को निरन्तर अभयदान का महत्पुण्य उपार्जन करने के लिए तत्पर | रहना चाहिए। बाईसवाँ परिच्छेद ___चतुर चौकड़ी पुण्य का प्रबल प्रवाह पापी को कैसी-कैसी उत्कृष्ट दशाओं में पहुँचा देता है ! जो दुःख के महासागर में पड़ा हुआ पामर जीव निराश हो गया हो, जिसे अपनी जीवन की उन्नति की जरा भी आशा न हो - और आमरण दुःख भोगना है; जिसने ऐसा निश्चय कर लिया हो वह प्राणी भी जब उसके पुण्यों का उदय होता है तब एक अद्भुत और अभिनव आनन्द का अनुभव करता है । जो जंगल में भटकता हो, वह राज महलों में विलास करने लगता है। जो दरिद्रता के चुंगल में फँसा हो, वह कुबेर के समान धनपति हो जाता है । जो नंगे पाँवों पैदल घूमता हो वह हाथी, घोड़े, रथ, पालकी, आदि का स्वामी बन जाता है, और जो स्त्री सुख से वंचित हो वह रूप यौवन सम्पन्ना सुन्दरियों का पति बन जाता है । भाग्यवान् उत्तमकुमार एक ऐसा ही पुण्यशाली पुरुष था । उसके पुण्यों का उदय उदयाचल पर विराजमान था । वह मोटपल्ली नगर के राजसिंहासन पर सुशोभित था । महाराजा नरवर्मा ने उसे अपने राज्य का सर्वेसर्वा मालिक बना दिया था । मोटपल्ली नगर की प्रजा का वह मुख्य नायक बन गया था । अब तिलोत्तमा राजकुमारी नहीं थी बल्कि महारानी बन गई थी ।। सेठ महेश्वरदत्त ने राजा की और अपनी प्रतिज्ञा पालन करने के लिए अपनी कन्या सहस्त्रकला उत्तमकुमार को व्याह दी थी । राजकुमार द्वारा पहिले ही 85

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