Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 99
________________ हैं वे किसी दूसरे योग से नहीं हो सकते । इस संसार में पुण्य की ही जय होती है और पुण्य से यश होता है। चौवीसवाँ परिच्छेद पुत्र स्मरण वाराणसी नगरी का महाराजा मकरध्वज, अपनी चन्द्रशाला में बैठा हुआ चिन्ता कर रहा है। उसके मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प उठा करते हैं । उसके मुख मण्डल पर शोक की छाया निरन्तर बनी रहती है । इसी समय उसका मुख्य मंत्री किसी राजकाज के लिए वहाँ आ पहुँचा । द्वारपाल ने मंत्री के आगमन की सूचना दी - महाराज ने उसे भीतर आने की आज्ञा दी । मंत्री ने आकर राजा को प्रणाम किया, परन्तु महाराजा के दुःख पूर्ण मुख को देखकर विचार में पड़ गया। कुछ समय तक जब महाराज शब्द भी नहीं बोले तब मंत्री के मन में विशेष चिंता पैदा हुई । मंत्री ने नम्रता पूर्वक निवेदन किया - "स्वामिन् ! आपका मुँह आज चिंतातुर क्यों दिखाई पड़ रहा है ? आप सत्ताधीश तथा एक विशाल राज्य के मालिक हो, आपका हुक्म मानने के लिए वाराणसी राज्य की | सारी प्रजा तैयार है; फिर आप किस बात की चिंता कर रहे हैं ? ____ मंत्री के मुख से यह वचन श्रवण कर महाराजा, मकरध्वज ने कहा - "मंत्रीवर्य ! मेरी चिंता का कारण अन्य कुछ भी नहीं; आज मुझे अपने प्राण प्यारे पुत्र उत्तमकुमार की याद आ गयी है । बहुत समय बीत गया मुझे अपने प्यारे पुत्र की मनोहर सूरत नहीं दिखाई दी ! वह मेरा विद्वान पुत्र कहाँ गया होगा ? उसकी क्या दशा हुई होगी ! इत्यादि चिंताएँ मेरे मन को रातदिन जलाया करती हैं । आज रात को स्वप्न में मैंने उत्तमकुमार को चार पुष्पवती लताओं के मंडप में आनन्द पूर्वक बैठा देखा है । नवीन पुष्पों से सुशोभित चार लताओं के बीच राजकुमार क्रीडा कर रहा था और सांसारिक आनन्द का अनुभव कर रहा था । मंत्रीजी ! इस 92

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