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भी अधिक बलवान हो गया होगा । क्योंकि मेरे पाँचो दिव्य रत्न उसके पास हैं, उसके चले जाने से मेरा जीवन निराश हो गया है। वह राजकुमार मुझसे कदापि हार नहीं सकता। साथही वह अब मेरा दामाद भी बन गया है। उस पराक्रमी दामाद को मारकर अपनी पुत्री को विधवा करना, यह नीति तथा लोक विरुद्ध कार्य है । इसलिए, अब तो मुझे वहाँ जाकर उससे मिलना ही ठीक है ।" यह सोचकर लंकापति भ्रमरकेतु ने अपने हृदय का क्रोध दूर कर दिया । उस ज्योतिषी को खूब इनाम देकर बिदा किया । ज्योतिषी के चले जाने पर भ्रमरकेतु मोटपल्ली जाने के लिए तैयार हुआ । यद्यपि उसके मंत्री उसकी इस इच्छा के विरुद्ध थे तथापि उस चतुर भ्रमरकेतु ने उनकी एक भी नहीं मानी, और स्वयं अपनी पुत्री और जँवाई से मिलने के लिए मोटपल्ली नगर के लिए रवाना हुआ। थोड़े ही दिनो में वह वहाँ जा पहुँचा ।
राक्षस पतिभ्रमरकेतु अपने जामाता उत्तमकुमार से बड़े प्रेम पूर्वक मिले । उसने अभिमान त्यागकर राजकुमार से क्षमा माँगी । तदनन्तर वह अपनी पुत्री से मिला । पिता और पुत्री दोनों ही वात्सल्य प्रेम में मग्न हो गये । मदालसा और भ्रमरकेतु ने आपस में क्षमा माँगी । अपने जामाता की यश-कीर्ति श्रवण कर राक्षस पति ने प्रसन्न हो, अपना लंका का सारा राज्य उत्तमकुमार को सौंप दिया । बाद में भ्रमरकेतु अपने जामाता की आज्ञा ले, लंका की ओर चल दिया । पुण्य कार्यों का प्रभाव कितना अच्छा होता है ? लंकापति भ्रमरकेतु जो अपनी पुत्री तथा दिव्य पाँच रत्नों के हरण से उत्तमकुमार का भयङ्कर शत्रु बन गया था, - वही अब उसका मित्र बन गया । उसने प्रसन्नता पूर्वक उत्तमकुमार की आज्ञा अपने मस्तक पर चढ़ा, अपना राज्य तक उसे दे दिया । यह सब पुण्य ही का प्रभाव है । पुण्यरूपी सुधा - सागर में स्नान करने वाले प्राणी सदा अमर हो जाते हैं । उन पर भयङ्कर शस्त्र, विघ्न बाधाएँ, और मारण प्रयोग काम नहीं करते । उनके शत्रु मित्र बन जाते है, विष अमृत हो जाता है। अग्नि शीतल हो जाती है । जल स्थल बन जाता है और स्थल जल हो जाता है। पुण्य के प्रबल योग से जो कार्य सफल होते
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