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पच्चीसवाँ परिच्छेद
गोपाचल में युद्ध चारों ओर कोलाहल मचा हुआ था । रणवीर योद्धा अपने सिंहासन से गोपाचल की पर्वत उपत्यकाओं को गुंजा रहे थे । प्रति ध्वनि के गर्जन से | आकाश ध्वनित हो रहा था । कई योद्धा रण संग्राम का उत्साह प्रदर्शित कर रहे थे । कई वीरता दिखाने का अवसर आया देखकर हृदय में आनन्द मना रहे थे । कोई अपने मालिक की सेवा सफल करने का समय देखकर मन में बहुत ही आनन्दित होते थे । कई अपने स्वामी के आदेश को सफल करने की इच्छा से प्राणार्पण करने के लिए रण-भूमि में तैयार खड़े थे।
अन्त में भयङ्कर युद्ध छिड़ गया । योद्धा लोग शस्त्र, अस्त्र और तलवारें लिये रणाङ्गण में कूद पड़े । एक ओर जुझाऊ बाजे बजने लगे । शूरवीरों का सिंहनाद होने लगा । शस्त्रास्त्रों से घायल योद्धाओं के रुण्ड नाचने लगे । मांस भक्षी पक्षी मांस की लोलुपता से चारों ओर मँडराने लगे । रक्त से सारी रणभूमि लथ-पत हो गयी । धड़ से अलग हुए मस्तक रणभूमि की शोभा को बढ़ाने लगे । बाणवृष्टि से चारों ओर अंधकार सा हो गया । भाट-चारणों ने वीर | रस के निम्नांकित काव्य कहने आरम्भ किये -
छूट यहाँ बहु बाण, कायर भगे ले प्राण । गिरने लगे बहु रुण्ड, कटने लगे नर मुण्ड ॥ होने लगा रण घोर, मच गया चहुँ दिसि शोर ।
थीं चमकती तलवार, मच गई मारामार ॥ बी चलीं बन्दूक, लगते निशान अचूक । रणशूर हो अति युद्ध, करने लगे सब युद्ध ॥
ये वीर युद्ध प्रचण्ड, हैं काटते रिपु मुण्ड। हैं लिये कर को दण्ड, लड़ने लगे नर-रुण्ड ।
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