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तेईसवाँ परिच्छेद
शत्रु, मित्र बना एक विकराल पुरुष बड़ी भारी सभा में बैठा है । वह साठ हजार राक्षसों |का मालिक है । उसके आस-पास भयङ्कर राक्षस हथियार ऊँचे उठाये हुए खड़े थे । उसकी सभा में संसार विनाश, युद्ध, लूट, चोरी, व्यभिचार, अन्तराय और आक्रमण की बातें हो रही हैं । क्रुरकार्य करने वाले, कालकूट राक्षसों के वहाँ व्याख्यान हो रहे हैं । धर्मज्ञान, योग, त्याग, दान, उपकार और सहायता करने वालों की निन्दा के प्रस्ताव पास किये जा रहे हैं । कई घोड़े के मुख वाले, गधे के मुख वाले, व्याघ्र मुख वाले, गरुड़ मुख वाले, भयङ्कर मुख वाले, काले और लाल मुख वाले पुरुष उसकी सभा में ऊँचे सिंहासन पर बैठे हुए हैं ।
उस विकराल पुरुष ने अपने एक राक्षस सेवक को हुक्म दिया - "जाओ ! किसी ज्योतिषी को शीघ्र यहाँ बुला लाओ । मेरी पुत्री को चुरानेवाला कौन है ? किसके सिर पर मौत मंडरा रही है ? कौन मेरे हाथों अपने प्राण खोना चाहता है?
आज्ञा होते ही एक राक्षस ने निवेदन किया - "राजराजेश्वर ! दैव योग से कोई ज्योतिषी स्वयं राजद्वार पर उपस्थित है। यदि आप आज्ञा दें तो उसे भीतर हाजिर करूँ ?" सेवक का यह वचन सुनते ही राक्षस पति ने प्रसन्न होकर कहा - "शीघ्र ही उसे अन्दर ले आओ।" ।
पाठकों इस प्रकरण के आरम्भ में ही जिज्ञासा उत्पन्न हुई होगी - इसलिए उसे यहाँ स्पष्ट कर देना ठीक है । जो विकराल राक्षस सभा इकट्ठी किये बैठा है, वह लंका का राजा भ्रमर केतु है । वह हमारे चरित्र नायक उत्तमकुमार की पहली पत्नी मदालसा का पिता है । उसने अपनी पुत्री मदालसा को समुद्र गिरि के एक कुए में महल बनवाकर एक वृद्धा दासी की देखरेख में रखी थी । वहाँ से उत्तमकुमार उसके साथे गान्धर्व-विधि से विवाह करके, मोटपल्ली नगर में ले आया
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