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प्रार्थना पूर्वक राजा से निवेदन किया - "राजेन्द्र ! क्षमा करो, इन दीन पामर अपराधियों को छोड़ ही दो । इन्होंने कर्म के वशीभूत होकर ऐसा किया था। कर्म के अन्धकार से आच्छादित होकर प्राणी अन्धा हो जाता है - उसे भले बुरे का तनिक भी ज्ञान नहीं रहता। ये बेचारे दोनों निर्दोष हैं। कर्म के दोषों से दूषित बने हुए दीन प्राणी पर दया करना उत्तम पुरुषों का परम कर्तव्य है। महाराज ! आप जानते हैं कि कर्म का दोष अत्यन्त बलवान है । मैं समुद्र में गिरा, मगर द्वारा खाया गया
और मनुष्य होते हुए भी पक्षी योनि का अनुभव किया इत्यादि सब मेरे पूर्व कर्मों का ही फल है। इसमें इस बेचारे सेठ कुबेरदत्त का अथवा मालिन का दोष ही क्या है ?
"इन्द्र चन्द्र, नागेन्द्र नर, तपसी, ऋषि, मुनीन्द्र । किये कर्म भोगें सभी जन, छूटे नहीं नरेन्द्र ॥ किस पर क्रोध निकालिए, किस पर कीजे रोष । किसका दोष बताइए, कर्मों के यह सब दोष ॥ नहीं कोउ दुख सुख देत है, देत करम झकझोर ।
उरझत सुरझत आपही, ध्वजा पवन के जोर ॥" यह सुनकर राजा नरवर्मा शान्त हो गया । इतने ही में राजा के नौकर उस पापी कुबेरदत्त को पकड़कर वहाँ ले आये । पापी कुबेरदत्त ने महाराज के सामने अपने सब अपराध मंजूर कर लिये और राजा से क्षमा प्रार्थना की ।
उत्तमकुमार के समझाने पर शान्त हो जाने के कारण राजा ने कुबेरदत्त को बहुत ही भला बुरा कहा और अन्त में उन दोनों अपराधियों के, प्राणदण्ड की आज्ञा रद कर दी । उसने कुबेरदत्त की सब सम्पत्ति जप्त करके उसे अपने देश से निकलवा दिया और उस मालिन को भी नगर से निकाल दी । इस प्रकार | दयालु राजकुमार ने अपने दया धर्म रूपी गुणों से उन दोनों अपराधियों को मुक्त करवाकर अभयदान दिया । राजकुमार की इस उदारता के कारण सारे मोटपल्ली नगर में उसकी अत्यन्त यश की कीर्ति फैल गयी, और सारी प्रजा उसका यशोगान करने लगी।"
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