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पन्द्रहवाँ परिच्छेद
परस्पर प्रेम की उत्पत्ति राज भवन के एकान्त स्थान में पवित्र हृदया मदालसा खिन्न मन से बैठी हुई | थी। उसके ललाट पर चिंता की त्यौरी पड़ी हुई थी। बार-बार निश्वास छोड़ती हुई, तथा आँखों से आँसू बहाती हुई वह हृदय के दुःख से अत्यन्त दुःखी थी । उसका चिंताकुल हृदय-मंदिर शोक के अन्धकार से आच्छादित हो गया था ।
इसी समय उसकी वह वृद्धा दासी उसके पास आयी । अपनी मालकिन को शोकातुर देख उसका हृदय भी चिन्तित हो गया । उसने मधुर और मन्द स्वर में कहा - "राजपुत्री ! किसलिए इतना शोक करती हो ? आज तक तो तुम आनन्द में रहा करती थीं, परन्तु आज तुम अचानक इतने शोक में क्यों पड़ी हो ? तुम्हारे समान सुज्ञ एवम् शिक्षित राजबाला ही जब मोह वश होकर इस प्रकार शोक सागर में डूब जायगी तो फिर दूसरी साधारण स्त्री की तो बात ही क्या है ? तुम गुणी
और समझदार हो, तुम्हारे हृदय पर इस प्रकार चिन्ता लगी रहे, यह तो सर्वथा अनुचित है।"
उस बुढ़िया के यह वचन सुनकर मदालसा ने धीरे से कहा - "मुझे आज मेरे प्राण पति का स्मरण हो गया है। मेरी बहिन तिलोत्तमा के वैवाहिक कार्यो को देखकर मेरी मनोवृत्ति अपने पतिदेव के स्मरण में लग गयी । आज बहुत दिन बीत गये, परन्तु मुझे मेरे प्राणनाथ का कुछ भी समाचार नहीं मिला । मैं आज तक अपनी आशारूपी बेली को हरी बनाये हुए थी, परन्तु यह आशालता अभी तक फलवती नहीं हुई ! अब मेरी आशा दिन प्रति दिन शिथिल होती जा रही है और मेरे हृदय में अपने पति के लिए अनेक शंकाएँ उत्पन्न होती हैं । अगाधसमुद्र में पड़कर क्या मेरे पति अब जीवित रहे होंगे ? यह बातें मुझे असम्भव सी मालूम | होती हैं । अब मुझे अपने जीवन पर प्रेम नहीं है । पति की ओर से निराश होकर , मैं अपने जीवन को कैसे धारण कर सकती हूँ । जब कभी मैं जीवन के अंत करने
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