Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 82
________________ में आया, वहाँ से जहाज में बैठ कर उसने समुद्र यात्रा की । मार्ग में एक द्वीप आया। उस समय प्यास से घबराये हुए मनुष्यों के उपकारार्थ वह द्वीप गिरि के एक कुएँ में उतरा । कुएँ में एक द्वार था। उसके द्वारा उसने अन्दर घुसकर एक देवभवन के समान महल देखा । उस महल में लंकाधिपति राक्षस भ्रमरकेतु की पुत्री मदालसा से मिला । मदालसा ने उसके साथ गान्धर्व विवाह किया । इसके बाद राक्षस पिता द्वारा रखी हुई अपनी एक वृद्धादासी सहित वह राक्षस कन्या मदालसा राजकुमार के साथ वहाँ से चल पड़ी।" पश्चात वहाँ पर रहे हुए कुबेरदत्त व्यपारी के जहाज पर वह अपनी स्त्री सहित सवार हुआ । राक्षसपुत्री मदालसा के पास पाँच दिव्य रत्न थे, उनके द्वारा उसने कुबेरदत्त के जहाज में के प्यासे लोगों की प्यास बुझा दी। सात ही उसने रत्नों के प्रभाव से अन्न भोजन प्रदान करके लोगों को सुखी किया । रूप यौवन सम्पन्न मदालसा और उसके उत्तम पाँच रत्न देखकर कुबेरदत्त के हृदय में विकार पैदा हुआ । उसने उस कुमार को मार डालने की ठानी । एक दिन उसने रात के समय उत्तमकुमार को समुद्र में धक्का देकर गिरा दिया । समुद्र में तैरते हुए एक बड़े भारी मगर ने उसे निगल लिया । उस मगर को धीवरों ने पकड़ा । मगर का शरीर चीरने पर दैवयोग से उसके पेट में से उत्तमकुमार जीवित ही निकला । धीवरों ने उसे उत्तमपुरुष जानकर अपने घर रखा । एक दिन वह राजकुमार शहर देखने की इच्छा से निकला । उसने राजकुमारी के महल निर्माण में चातुर्य प्रदर्शित कर महान् ख्याति प्राप्त की। कुछ दिनों बाद राजकुमारी तिलोत्तमा को सांप काटा तब उसने अपने मंत्र-बल से उसे अच्छी करके उसके साथ विवाह किया । तदनन्तर राज सुखों को भोगता हुआ वह राजपुत्र बड़े ही आनन्द से रहने लगा । एक दिन जिन पूजन के निमित्त जिनालय में गया । विधिपूर्वक पूजन करते समय एक सुन्दर फूल हाथ में आया । उसमें मोम से बन्द की हुई एक नलिका को उसने खोला तो उसके भीतर बैठे हुए सर्पने उसे काट खाया । सर्प विष से अचेत होकर वह वहीं गिर गया।" 15

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