Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 86
________________ राजा की पूर्ण उत्कण्ठा और अपने प्रति श्रद्धा देखकर वह तोता बोला - "राजेन्द्र ! आपके सेवक अनङ्गसेना का घर ढूँढकर वापस आ गये । परन्तु उस अनंगसेना ने क्या किया, वह सुनो । उस चतुर वेश्या को यह पहले ही मालूम था कि यह राजकुमार महाराजा नरवर्मा का जवाई है, इसलिए इसे छिपाकर रखना चाहिए । ऐसा विचारकर उस प्रवीण वेश्या ने एक सूत का डोरा मंत्रित करके उसके पैर में बाँध दिया। इससे वह पुरुष तोता पक्षी बन गया । वह विषयी वेश्या नित्य रात्रि के समय वह डोरा खोलकर उसे पुरुष बना लेती है, और सारी रात आनन्द पूर्वक बिताकर फिर प्रातः काल उसके पाँव में डोरा बाँधकर उसे तोता बनाकर पिंजरे में बन्द कर देती है । अब वह वेश्या राजकुमार को पक्षी बनाकर पिंजरे में बन्द करती है, उस समय वह राजकुमार दुःखी होकर कहा करता है मानव से पक्षी बन्यो, मैं क्या कीन्हों पाप । इस भव में सहने पड़े, महा कठिन सन्ताप ॥ हाँ हाँ, मैंने है हरी, पिता अदत्त नार । व्याही कुंवरि मदालसा, पाँच रत्न लिये सार ॥ ये दो पाप किये यहाँ, तिनसों डस्यो भुजङ्ग। वेश्या घर में आनकर, नर को बन्यो विहंग ॥ इस तरह वह राजकुमार उस वेश्या के घर एक महीने तक रहा । एक दिन भूल से अनंगसेना पिंजरे का द्वार खुला छोड़कर किसी काम से बाहिर चली गयी । पक्षी रूप में परतंत्र राजकुमार मौका देखकर उस पिंजरे से उड़ गया । राजन् ! अब मैं जो बात कहूँगा उसे सुनकर आप बड़े ही प्रसन्न होंगे । किन्तु आपको अब अपना वचन पालन करना पड़ेगा। आज आपकी आज्ञा से शहर में ढिंढोरा पिट रहा था । उसे सुनकर वह पक्षी वहाँ आया और उसने ढोल को छुआ । पक्षी की यह हरकत देखकर वहाँ पर लोगों का झुंड इकट्ठा हो गया । इसके बाद वह पक्षी आपकी आज्ञा से यहाँ लाया गया । महाराज ! वह पक्षी मैं ही हूँ। मेरे पाँव में बँधा हुआ यह डोरा तोड़ डालिए । 79

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