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इक्कीसवाँ परिच्छेद
अभय दान उत्तमकुमार के मिल जाने पर राजा नरवर्मा बड़ा ही आनन्दित रहने लगा। | एक दिन वह न्यायासन पर बैठा था । उसके पास कई नीति-निपुण न्यायाधीश
भी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार बैठे हुए थे । न्याय मंदिर में बैठे हुए महाराज के सिर पर अदृश्य रूप से नीति देवी छत्र लिये खड़ी थी । गरीब से लगा कर अपने राज परिवार तक को एक दृष्टि से देखने वाले राजा के दरबार में बिलकुल उचित न्याय होता था।
इसी समय एक सेवक ने आकर महाराजा को प्रणाम करते हुए कहा - "नरेन्द्र ! आपकी आज्ञानुसार वह मालिन हाजिर है, जैसी आज्ञा हो पालन किया जाय।" सेवक के मुँह से यह बात सुनते ही महाराजा ने उसे दरबार में हाजिर करने का हुक्म दिया । सेवक ने उस अपराधिनी मालिन को महाराजा के समक्ष लाकर खड़ी की । मालिन को देखते ही राजा ने क्रोध पूर्वक पूछा - "बाई ! तूं कौन है।"
मालिन ने कहा - "महाराज! मैं आपके बगीचे की मालिन हूँ।" | राजा - "तेरा नाम क्या है?"
मालिन - "मेरा नाम चपला है।" | राजा - तूं बगीचे में क्या काम करती है ?
मालिन - मैं हमेंशा फूल लाने का कार्य करती हूँ। | राजा - उन पुष्पों को लाकर तूं क्या करती है ?
मालिन - वे फूल जगह जगहदेती हूँ। | राजा - कहाँ-कहाँ देने जाती है? मालिन - हजूर ! दरबार में ,जिनमन्दिर में और मंत्रीजी के घर । राजा - पुष्पों के देने से तुझे क्या मिलता है? | मालिन - मुझे राज्य की तरफ से वार्षिक जीविका मिलती है।
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