Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 70
________________ अपनी सम्पत्ति को त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने के लिए तैयार है । इस सद्गुणी सेठ को सहस्त्रशः धन्यवाद है । राज-लक्ष्मी का कीड़ा बनकर मोह मग्न रहनेवाले मुझ जैसे मनुष्य से यह सेठ सौ गुणा श्रेष्ठ है । जैन शासन देवता ! कृपाकर के मेरी वृत्ति को भी इसी तरह पुण्य के पवित्र मार्ग की ओर | प्रेरित कीजिए।" इस प्रकार विचार करते-करते राजा नरवर्मा उस समय उत्तम भावनाओं का भावुक और वैराग्य-धर्म का प्रभावक बन गया। उसकी मनोवृत्ति तात्त्विक वासना से तृप्त होकर उच्च विचारों में तल्लीन हो गयी । उसके शुद्ध अंतःकरण में तात्त्विक विचारों का ताँतासा बँध गया । इसी कारण वह आत्मिक बल का पोषक तथा कर्म-पंक का शोषक हुआ। सत्रहवाँ परिच्छेद तिलोत्तमा की चिन्ता एक गगन चुम्बी सुन्दर महल में बैठी हुई तिलोत्तमा, सिर पर हाथ लगाये चिंता कर रही थी । बार बार निःश्वास छोड़कर अपने कोमल होठों को अत्यन्त ग्लानि पहुँचा रही थी । चिता के समान, चिंता से उसका कोमल हृदय जला हुआ था । वह सचेत होते हुए भी जड़वत् और सखी सहेलियों सहित होने पर भी शून्यसी दिखाई पड़ती थी। इसी समय एक दासी, जो उसके साथ समान वर्ताव रखने वाली थी वह वहाँ आ पहुँची । अपनी स्वामिनी को चिंतातुर देख वह दासी भी चिन्तित होकर कहने लगी - "राजकुमारी ! किस विषय की चिंता कर रही हो ? महाराजा नरवर्मा ने योग्यपति से तुम्हारा विवाह करके तुम्हारी सब चिंताएँ दूर कर दी हैं । विवाह हो | जाने पर पति-गृह जाने वाली कन्या को पितृगृह का वियोग होता है और अपने माता-पिता कुटुम्बी लोगों से अलग होना पड़ता है। ऐसा अवसर अभी तुम्हें नहीं | 63

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