Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 77
________________ आज्ञा है ? आज का दिन धन्य है कि आपने मुझे बुलाकर दर्शन दिये ।" . ___ नरवर्मा ने प्रसन्नता पूर्वक कहा – “सेठजी ! मैं भी आपके दर्शनों से कृतार्थ हुआ हूँ। आप जैसे पवित्र गृहस्थ मेरी राजधानी में निवास करते हैं इसे मैं अपना पुण्य योग समझता हूँ । धार्मिक और विश्वस्त प्रजा पर राज्य करने वाला राजा वास्तव में पुण्यवान गिना जाता है । सेठ साहिब ! मेरे सुनने में आया है कि आप अपनी पुत्री का विवाह करने के बाद त्याग वृत्ति धारण की इच्छा रखते हो, - जीवन के शेष दिनों में परलोक साधन करने की प्रवृत्ति धारण करना चाहते हो ।” | महेश्वरदत्त ने नम्रता पूर्वक निवेदन किया - "महाराज ! यदि मेरी धारणाएँ पूर्ण हो जावें तो, ऐसी मेरी इच्छा अवश्य है । परन्तु यह सब कर्माधीन है। बाधाओं से परिपूर्ण इस संसार से मुक्त होना अत्यन्त कठिन कार्य है । कर्म के आधीन होकर मनुष्य-प्राणी विचारता क्या है और होता कुछ और ही है । कर्म के जटिल-जाल से निकलना बहुत ही मुश्किल है।" । राजा ने धैर्य देते हुए कहा – “सेठजी ! आप की दृढ़ता देखकर मुझे तो | पूर्ण विश्वास होता है कि आपकी इच्छा अवश्य ही सफल होगी । आपकी शुद्ध मनोवृत्ति आपकी मनोभिलाषा पूर्ण करेगी । भद्र ! आपके ऐसे पवित्र | विचारों को सुनकर मेरे हृदय में भी ऐसी ही भावना उत्पन्न हुई है। यदि आप मुझे सहायता देने की इच्छा रखते हो तो मेरी शुद्ध भावना को भी पुष्टि मिलेगी। इस राज्य लक्ष्मी का त्याग करके परलोक साधन में प्रवृत्ति करने का मैंने भी निश्चय कर लिया है। जब से आप के विचार मेरे श्रवण करने में आये हैं, तभी से | यह महत्कार्य करने के लिए मैं भी शीघ्र ही तैयार हो गया हूँ। परन्तु दैवयोग से अभी एक महान्-विघ्न आगया है, जिसने मेरी धारणा में गड़बड़ी पैदा कर दी है।" महेश्वरदत्त ने बड़ी ही उत्सुकता से पूछा - "महाराज ! ऐसा क्या विघ्न आ गया है ? नरवर्मा ने संक्षेप में कहा - "मेरी पुत्री तिलोत्तमा के पति न जाने अचानक कहाँ चले गये ? कुछ पता नहीं लगता । वे प्रातः काल जिन-पूजा करने गये थे, परन्तु अभी तक वापस ही नहीं लौटे ! शहर और आसपास के स्थानों में बहुत 70

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