Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 75
________________ हरण भी कर सकती है। लक्ष्मी के लोभ में पड़कर मनुष्य घोर हिंसा करने के लिए तैयार हो जाते हैं। सोना मोहरों के हार को प्राप्त करके वह मालिन बहुत ही प्रसन्न हुई । उस मनमोहक सुन्दर हार को देखकर वह फूली नहीं समाई । उसने मुस्कुराते हुए कहा – “सेठजी ! आपका शुभ नाम क्या है ? और आपका कार्य कब सिद्ध होना चाहिए? मैं आपकी दया से सब कुछ कर सकूँगी।" मालिन के यह वचन सुनकर मन में प्रसन्न हो, उस पुरुष ने कहा - "भद्रे ! | | मेरा नाम कुबेरदत्त है, उत्तमकुमार मेरा कट्टर शत्रु है । एक समय मैंने उसे समुद्र में फेंक दिया था, परन्तु वह मुझ से बदला चुकाने के लिए फिर भी आज जीवित है। अब जैसे हो सके वैसे मैंने उसके लिए प्राण-नाश करने का निश्चय कर लिया है। मैंने कई उपाय सोचे भी परन्तु कोई भी मुझे ठीक नहीं जचा । अन्त में तेरे मिलाप | से मुझे आज अपने कार्य को बनने की पूरी आशा हो गयी है । बहिन ! बता तूं किस तरह मेरे इस कार्य को करेगी?" कुबेरदत्त के यह वचन सुनकर वह मालिन प्रसन्न मुख से कहने लगी - | “सेठजी ! मैं अभी जिनालय में उत्तमकुमार को फूल देने जा रही हूँ । एक अच्छे सुगन्धित फूल में छेद कर के उसमें एक जहरीले छोटे सर्प को रख दूंगी और वह पुष्प उत्तमकुमार को पूजा के लिए दूँगी । जब उत्तमकुमार जिनपूजा के लिए उस सुगन्धित पुष्प को लेगा तो पुष्य-नलिका में बैठा हुआ वह विषधर-सर्प उसे काट खायगा, जिससे वह तत्काल मर जायगा । इस प्रकार आप अपने शत्रु के भय से मुक्त हो सकेंगे।" मालिन की ऐसी चतुराई की बातें सुनकर कुबेरदत्त के हर्ष का पारावार नही रहा । वह बोला - "बहिन ! तेरी युक्ति प्रशंसा के योग्य है । इस काम के पूर्ण हो| जाने पर मैं तुझे अन्य अमूल्य इनाम देकर खुश करूंगा।" ऐसा कहकर उस मालिन से कुबेरदत्त ने वचन लिया, और स्वयं प्रतिवचन देकर पुनः इसी जगह कल मिलने का वादा करके चला गया । उस मालिन 68

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