Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 66
________________ प्रचण्ड ताण्डव-नृत्य जो काम करता है, वह किसी दूसरे से नहीं हो सकता।" । यह सोचते उसके पवित्र हृदय में प्रेम जागरित हो उठा। शरीर रोमांचित हो गया । मुख मुद्रापर विकार की रेखा झलकने लगी । प्रत्येक अंग में स्नेह का रंग व्याप्त हो गया । उसके सामने न होते हुए भी वह उस रमणी को अपने सामने | प्रत्यक्षवत् अनुभव करने लगा। इस प्रकार एक ओर मदालसा और दूसरी ओर उत्तमकुमार अपनेअपने शंकित तथा अनिश्चित प्रेम के सुन्दर रस का मन-ही-मन अनुभव करने लगे। वे परस्पर प्रेम मग्न हो गये, किन्तु यह प्रेम, संदेहात्मक होने के कारण उनके मन को शंका और संकल्प-विकल्प के जटिल जाल में झोंके दे रहा था लेकिन शुद्ध प्रेम की सच्ची प्रतिमा होने के कारण सहज स्वभाव से ही संदेह होने पर भी निःशंक धर्म को धारण करके उनके हृदय में विश्वास उत्पन्न करती थी । यद्यपि | सती मदालसा ने अपने मन को उलाहना दिया था, तथापि आशा के बलपर उसके हृदय में सत्य की छाप पड़ी और इसीसे वह "शायद यह बात सत्य हो" ऐसा भी विचार करती जाती थी । उसी तरह राजकुमार भी अपने हृदय को |सँभालकर आशा पर झूल रहा था । इस प्रकार उन दोनों वियोगी दम्पति के शुद्ध | हृदय में अलग अलग ढंग से प्रेम की जागृति हुई। सोलहवाँ परिच्छेद सहस्त्र कला एक सुन्दर बाला अपने मनोहर महल में बैठी हुई थी । उसकी अवस्था मुग्धा और तारुण्य के बीच की कही जा सकती है । उसके शरीर पर अनुपम सौन्दर्य शोभा दे रहा था । उसका मुखचन्द्र पूर्णिमा के चन्द्रमा को भी लज्जित करता था । मुखचन्द्र में मृदुहास्य अपूर्व मननोहक बन गया था । हास्य के समय उसके दाँतो की उज्ज्वल किरणें उसके मुख-तेज को और भी प्रकाशित करने 59

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