Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 64
________________ उस वृद्धा स्त्री को उसने वहाँ जाने की आज्ञा दी । बुढ़िया प्रसन्नता पूर्वक उठ खड़ी हुई और अपनी स्वामिनी का कार्य सिद्ध करने के लिए राजपुत्री तिलोत्तमा के महल की ओर चलदी। वह वृद्धा उस महल से भली-भाँति परिचित थी, इसलिए वह वहाँ बिना किसी रोक-टोक के आ जा सकती थी। उसने तिलोत्तमा के महल में जाकर उस सुन्दर राजकुमार को देखा । राजकुमार की आकृति उसके ध्यान में तो आई परन्तु वह उसे देखकर यह निश्चय नहीं कर सकी कि वह उत्तमकुमार ही है, उसके हृदय में कुछ शंका रह ही गयी। उत्तमकुमार को देखकर वृद्धा अपनी मालकिन मदालसा के पास आयी | और पुलकित होकर कहने लगी; "बाईसाहेब ! यद्यपि राजकुमारी तिलोत्तमा का पति तुम्हारे पति उत्तमकुमार से बहुत कुछ मिलता जुलता है । तथापि में निश्चयपूर्वक ऐसा नहीं कह सकती कि वह उत्तमकुमार ही है। मुझे वह उत्तमकुमार के समान ही दिखाई पड़ता है। आकृति तो उसकी वैसी ही है । पर उसकी आकृति में थोड़ा फर्क है, किन्तु वह स्वाभाविक नहीं, कृत्रिम है।" वृद्धा के वचन सुनते ही मदालसा का हृदय भर आया।"शायद वह मेरा ही पति | हो ।" ऐसा एक अनिश्चित विचार उसके हृदय में चक्कर काटने लगा। उसके हृदय में पति प्रेम की उत्ताल तरंगे उठने लगीं । थोड़ी देर बाद उस सती स्त्री ने अपना अनिश्चित विचार बदल दिया और तुरंत ही उसने अपने मन को समझाया - "अरे पापीमन ! मुझे भुलाकर, बिना पूर्ण निश्चय किये, उस अज्ञात पुरुष पर अपना प्रेम क्यों प्रकट किया ? तूं मेरे पवित्र चरित्र को कलंकित करने के लिए तैयार हो गया, परन्तु मैं अपने पूर्व पुण्य के बल से सावधान हो गयी हूँ । यदि इन्द्र, देव, गन्धर्व, चक्रवर्ती, अर्द्ध चक्रवर्ती, सार्वभौम या महाराजा भी हो, तो भी उन्हें देखकर मेरे विचार में विकार उत्पन्न नहीं होने पाया था, किन्तु अरे चंचल मन ! तूंने तेरा स्वभाव दिखा ही दिया । और तूं रागी प्रेमी बनने के लिए तैयार हो गया। परन्तु इस समय मुझे, मेरे सम्यक्त्व सहित सती धर्म ने बचाया है। तेरे मलिन फन्दे 57

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