Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 63
________________ का विचार करती हूँ तभी आर्हत धर्म के नियम मेरे हृदय में आ जाते हैं । काष्ठ भक्षण कर के आत्महत्या करना आर्हत धर्म के विरुद्ध है । इसलिए अब मैंने निश्चय किया है कि इस सांसारिक जीवन से मुक्त होकर और संसार का त्याग करके चारित्र जीवन में प्रवेश करना चाहिए । मेरे पिता तुल्य महाराजा नरवर्मा की कृपा का मैंने यहाँ खूब लाभ उठाया है । दीन मनुष्यों को दान देकर, और अशरण को शरण देकर मैंने अपने आचरणों को उपकार धर्म में प्रवृत्त किया है । सात क्षेत्रों में द्रव्य व्यय करके, मैंने मेरा गृहस्थ धर्म यथाशक्ति कृतार्थ किया है । इसी तरह हृदय और विचारों की पवित्रता के निमित्त, जिन पूजा और जिनाराधन भी किया है । अब मेरी इच्छा चारित्र ग्रहण कर आत्मसाधना करने की है । अब मैं इस प्रवृत्तिमार्ग से निवृत्ति मार्ग की तरफ जाने के लिए व्याकुल हूँ । इस संसार के असार स्वरूप से मुझे अब कुछ घृणा सी उत्पन्न हो गयी है ।" मदालसा के यह वचन श्रवण कर वह वृद्धा दासी कहने लगी- "राजकुमारी ! तुम ऐसी चिंता मत करो । मैंने आज ही एक ऐसी बात सुनी है, जिससे आपकी मुरझाई हुई आशालता सींची जा सकती है . सावधान होकर सुनो । तुम्हारी प्रिय बहिन तिलोत्तमा का जिस पुरुष से अभी वैवाहिक सम्बन्ध हुआ है, वह कोई विदेशी पुरुष है, और उसकी प्रशंसा खूब हो रही है । उसका ज्ञान तथा कला-कौशल अलौकिक सुना गया है । कहीं वह वीर पुरुष तुम्हारे पति तो न हों ? आयुष्य बल से दुस्तर समुद्र को तैरकर शायद वे यहाँ आ गये हों ? कर्म की गति बड़ी ही विचित्र होती है । कर्म - विधि से अनहोनी घटनाएँ भी हो जाती हैं । यदि आपकी इच्छा तथा आज्ञा होतो मैं उस वीर पुरुष को स्वयं जाकर अपनी आँखो देख आऊँ ?" I वृद्धा दासी के ये वचन सुनकर मदालसा की आशालता पुन: कुछ अंकुरित होने लगी । दासी की बातें उसे असम्भव नहीं मालूम हुई । कर्म की विचित्रता पर विश्वास करनेवाली मदालसा यह बातें सुनकर अपने अव्यवस्थित हृदय में संकल्प - विकल्प करने लगी । थोड़ी देर विचारने के बाद 56

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