Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 61
________________ ओर राज परिवार में आनन्द मंगल होने लगा और प्रजा में भी घर-घर उत्सव मनाया जाने लगा ? अपनी बेटी को निर्विष हुई देखकर प्रसन्नता पूर्वक राजा नरवर्मा ने राजकुमार से कहा - "हे उपकारी, नरवर ! यह राज्य और राज कन्या ग्रहण करके मुजे कृतार्थ कीजिए । राजपुत्री को जीवनदान देने वाले महानुभाव ! आप इस कन्या तथा मेरे राज्य के स्वामी बनकर मुझे आपके ऋण से मुक्त कीजिए । आपकी पहली भेट से ही आपकी कुलीनता तथा निपुणता की गहरी छाप मेरे चित्तपर लग चुकी थी अबकी बार आपके इस उपकार ने तो और भी वृद्धि की है। राजपुत्र ! आपके इस उपकार का बदला किसी दूसरी तरह से मैं दे सकूं यह असम्भव है । बुद्धिमान मनुष्य को उपकार का बदला जरूर देना चाहिए । जो मनुष्य किसी के उपकार का बदला नहीं देता, वह कृतघ्नी गिना जाता है । वह अपने मानव जीवन को दूषित कर देता है । कृतज्ञता सबसे बड़ा गुण है - कुत्ते जैसे निकृष्ट प्राणी में भी यह गुण होता है । पाला हुआ कुत्ता अपने पालने वाले मालिक के घर की और शरीर की रात-दिन रक्षा करता है । इतना ही नहीं बल्कि वह अपने मालिक के लिए प्राण तक देने को तैयार रहता है । रणभूमि में मूच्छित अपने सवार को छोड़कर असली जातिवान घोड़ा कभी भी नहीं भागता । इस प्रकार पशुपक्षी कीट पतंगादि भी कृतज्ञता के गुण से विभूषित हैं तो जीवो में प्रथम मानेजाने वाला बुद्धिमान मनुष्य कृतज्ञता के इस उत्तम गुण को भूल जाय तो वास्तव में वह कृतघ्नी माना जाता है । कृतघ्नी पुरुषों के मलिन जीवन को नीतिकारों ने अत्यन्त घृणित माना है । अतः हे प्रिय राजकुमार ! मैं कृतघ्नता के महापाप से बहुत डरता हूँ और इसीलिए यह राज्य तथा राज कन्या आपको देकर मेरे जीवन के शेष दिनों को अच्छे मार्ग में लगाने की इच्छा करता हूँ । वृद्धावस्था में धर्म तथा आत्म साधना करने वाले पुरुषों का जीवन कृतार्थ माना जाता है, ऐसे कई उदाहरण जैन इतिहास में मिलते हैं। " राजा ने तिलोत्तमा की शादि उत्तमकुमार से करने का तय कर इस खुशी में कैदियों को छोड़ने आदि कई कार्य किये । इसमें कुबेरदत्त भी छूट गया । 54

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