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मन्द स्वर में कहा - "पिताजी ! आप मेरे उपकारी पिता हो । आपने मेरे जीवन के लिए जो कुछ भी किया वह बहुत है । आपने जैसा अपना पितृ धर्म निभाया है वैसा निभाहने वाले इस संसार में कोई विरले ही पिता मिलेंगे । पूज्य पिताजी ! आप मुझे हिम्मत दे रहे हैं, परन्तु मुझ में वह हिम्मत्त अब आती नहीं । साँप का भयङ्कर और प्राण नाशक विष मेरे अंग प्रत्यंग में पहुँच चुका है। ऐसे उग्र विष को उतारने वाला महा पुरुष कहाँ मिलेगा ? अब मैंने अपने जीवन की आशा छोड़ दी है इसलिए पिताजी ! आप मेरी एक इच्छा पूरी करने का वचन दो, जिससे मैं प्रसन्न होकर इस अन्त समय में अपना जीवन सफल करने के लिए पंचपरमेष्ठी का स्मरण कर सकूँ ?”
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महाराजा ने रोते-रोते कहा - "बेटी ! शान्ति धारण कर । शासन देवता तेरी रक्षा करेंगे । तेरी क्या इच्छा है ? यह शरीर, राज्य इत्यादि सब तेरा ही है । तेरे | जीवन के लिए यह सब कुछ अर्पण कर सकता हूँ ।" इस बार राजपुत्री ने बहुत ही अस्पष्ट और धीमी आवाज से कहा - "पिताजी ! मेरी प्रिय बहिन मदालसा की आप रक्षा करना, और उसे मेरे समान समजकर उसकी सब अभिलषाएँ पूर्ण करना । यही मेरी एक मात्र अन्तिम इच्छा है, मेरा वियोग उसे दुःखी न कर सके ऐसा उपाय करना, और उसके सब मनोरथ पूरे करना ।" यों कहते-कहते | राजबाला की बोली बन्द हो गयी ? उसकी जबान पर जहर का असर अधिक हो गया। परन्तु उस पवित्र रमणी के मुख से नवकार मंत्र का स्पष्ट उच्चारण हो रहा था ।
पुत्री की ऐसी स्थिति देखकर नरवर्मा और भी अधिक घबरा गया । उसके दोनों नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी । एक ओर मदालसा सुबुक सुबुक कर रोने लगी । सारे अन्त: पुर में शोक सागर उमड़ पड़ा। सब के नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी । इधर मदालसा थोडी देर में अपने कमरे में चली गयी। इसी समय एक राजसेवक ने दौड़ते हुए आकर रोते विलपते राजा नरवर्मा को प्रणाम करके कहा- "महाराज ! कोई एक राजकुमार द्वार पर आकर खड़े हैं और कहते हैं कि "राजकुमारी कहाँ हैं ? उसे निर्विष कर सकता हूँ । यह सुनते ही, मानो राजा
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