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उत्तमकुमार इस दुर्गुण से मुक्त था । वह निष्कपट होकर अपनी गुप्त कलाएँ भी दूसरों को सिखा दिया करता था और उन्हें अच्छी सूचनाएँभी दिया करता था !
एक दिन राजा नरवर्मा उस नये महल को देखने आया । राजा को आया देख खुद राजमिस्त्री तथा दूसरे कारीगर उत्तमकुमार को साथ ले उसके पास पहुँचे । राजा ने घूम-फिरकर महल को ध्यानपूर्वक देखा । उसकी सुन्दर रचना तथा अद्भुत कारीगरी देखकर नरवर्मा बहुत ही प्रसन्न हुआ । ऐसे दिव्य और अद्भुत शिल्प कार्य के लिए महाराजा ने अपने मिस्त्री को धन्यवाद देते हुए और
अनेक प्रशंसा सूचक वाक्य भी कहे । उस समय कृतज्ञता के गुण को जानने वाले | | मिस्त्री ने, उस उत्तमकुमार को आगे करते हुए कहा - "सरकार ! इन सब प्रशंसाओं|
का पात्र मैं नहीं बल्कि ये महाशय हैं । यह वीरनर, शिल्प शास्त्र का पूर्ण विद्वान है। इसी की सहायता से हम इस राज महल को इतना अच्छा तैयार कर सके हैं।" यह सुनकर राजा नरवर्मा को महान आश्चर्य हुआ । राजकुमार की मनोहर | आकृति देखते ही उसके हृदय में राजकुमार के प्रति विश्वास और प्रेम उत्पन्न हो | गया । महाराज ने, उसका आदर करते हुए पूछा - "भद्र ! आप कौन हैं ? और हमारे भाग्य से आप यहाँ कहाँ से आये हैं ?" राजकुमार ने विनय पूर्वक कहा – “महाराज ! मैं एक क्षत्रिय पुत्र हूँ और देशाटन करने के लिए घर से चल | पड़ा हूँ।"
राजा ने हँसते हुए पूछा - "आपने यह शिल्पविद्या कहाँ सीखी?" राजकुमार ने विनीत वचनों में कहा - "राजेन्द्र ! वाराणसी नगरी के कलाभवन में रहकर मैंने | यह विद्या पढ़ी है । इसमें मैंने कुछ नयी बात तो की ही नहीं । क्योंकि समस्त कलाएँ सीखना क्षत्रिय कुमार का धर्म है ।" कुमार के ऐसे निर्भय वचन सुनकर महाराजा नरवर्मा बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसी समय राजा ने उत्तमकुमार को अपने महल में आने के लिए निमन्त्रित किया । राजकुमार ने उदारता पूर्वक निमन्त्रण स्वीकार करते हुए दूसरे दिन हाजिर होने को कहा ।
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