Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 55
________________ राजकुमार को निमन्त्रित कर जब राजा नरवर्मा वहाँ से चलने लगे तब उस मिस्त्री ने विनय पूर्वक कहा - "महाराज ! यह युवक सचमुच विश्वकर्मा का अवतार है । इसलिए इसे अपने यहाँ आश्रय देकर रख लेना चाहिए । ऐसे गुणी मनुष्यों ही से राज्य की शोभा है।" । मिस्त्री की प्रार्थना को ध्यान में रखकर राजा नरवर्मा अपने महल में लौट गया । राजा के चले जाने के बाद उस मिस्त्री ने उत्तमकुमार को राजा की राजनीति, असाधारण उदारता और विद्वानों के आदर-सम्मान करने के गुणों की बातें कह सुनायी । सुनकर राजकुमार के निर्मल हृदय में राजा के प्रति बड़ी ही श्रद्धा उत्पन्न हुई। तेरहवाँ परिच्छेद सर्प - दंश एक सुन्दर वाटिका थी, जिसमें तरह-तरह के वृक्ष अपने पल्लव, पुष्प और फलरूपी समृद्धि से सुशोभित दिखाई पड़ते थे । पक्षी अपने मधुर कलरव से वाटिका की मनोहरता को और भी बढ़ा रहे थे । कहीं क्यारियों की अनुपम रचना मन को लुभाती थी । जहाँ-तहाँ भरे हुए पानी के कुण्ड वाटिका की शोभा को द्विगुणित कर रहे थे । उनमें पानी पीनेवाले पक्षी, मानों वृक्षों पर बैठकर अपने मधुर शब्दों से उनका आभार स्वीकार कर रहे थे । पुष्प तोड़ती हुई मालिने मनवाच्छित पुष्पों को पाकर मन में मुस्कुरा रही थीं और साथ ही मधुर गीत भी गाती जाती थीं । एक ओर निर्मल जल की नाली बह रही थी । छायादार वृक्षों की शीतल छाया में बैठे हुए अनेक पशु-पक्षी उस निर्मल जल का पान कर अपनी प्यास बुझाते थे । कहीं नाली से जल के गिरने का शब्द सुनकर मयूर मेघ गर्जन समझ, संभ्रम से आवाज करते हुए नाच रहे थे । कहीं चपलता प्रदर्शित करने वाले बन्दर वृक्ष शाखाओं को पकड़कर झूल रहे थे । आम्रवृक्ष की मंजरी 48

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