Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 48
________________ ग्यारहवाँ परिच्छेद तिलोत्तमा का मिलाप सती मदालसा, राजा नरवर्मा के अन्तःपुर में राजकुमारी तिलोत्तमा के साथ रहा करती थी । यह जानते हुए भी कि मेरा पति समुद्र में डूब गया है - वह पवित्र बाला अपने पति से मिलने की पूर्ण आशा रखती थी । शुभ-स्वप्न के कारण तथा मानसिक प्रसन्नता के कारण उसे पूर्ण विश्वास हो गया था कि, मुझे मेरे पति अवश्य मिलेंगे।वे मरे नहीं जीवित हैं । इत्यादि मदालसा, तिलोत्तमा के एकान्त महल में रहती थी । वह पवित्र रमणी अपने पांच रत्नों के प्रभाव से, दान धर्म करती थी । हमेशा जैन-धर्म के ग्रंथो का मनन करती, और तिलोत्तमा को पढ़कर सुनाया करती थी । वह शरीर में तेल उबटन आदि लगाकर स्नान, तथा चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों का लेपन नहीं करती थी। जमीन पर सोती और नवीन वस्त्रालंकार धारण नहीं करती थी । सुगन्धित पुष्प तथा| इत्र फुलेल काम में नहीं लाती, तथा कभी पान भी नहीं खाती थी । स्वादिष्ट भोजन, मधुर मेवा, दूध दही, घी, मिठाई, कन्द मूल, हरी वस्तु वगैरह का उसने त्याग कर दिया था । हमेशा वह एक ही वक्त भोजन करती थी । वह भूलकर भी महल के आगे के गवाक्षों में नहीं बैठती थी । शृङ्गार रसपूर्ण कथाएँ, वार्ताएँ, कविताएँ और गाथाएँ आदि वह न तो गाती ही और न सुनती ही थी ।शृङ्गार काव्य का पढ़ना या सुनना उसने त्याग दिया था । किसी भी पुरुष के साथ वह बात-चीत नहीं करती थी और न उसके सामने देखती ही थी । वह सदैव नवकार मन्त्र का जप करती तथा जिनेन्द्र भगवान का ध्यान किया करती थी । महान् पुरुषों के तथा धर्म वीरों के और सती साध्वी स्त्रियों के चरित्र, तथा धर्म, नीति और वैराग्य विषयक ग्रंथों को पढ़ा करती थी। एक दिन राजपुत्री तिलोत्तमा ने मुस्कुराकर पूछा - "बहिन मदालसा ! तुम सांसारिक स्त्री होकर एक साध्वी की भाँति ऐसे कठिन नियमों का पालन

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