Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 46
________________ एक दूसरे पर अनुरक्त देखकर मेरी रक्षिका बुढ़िया ने हमारा वहीं पर गान्धर्व विवाह कर दिया । बाद में हम तीनों चुपचाप महल से बाहर निकल आये । यह सेठ कुबेरदत्त उधर से जहाज लिये कहीं चले जा रहे थे । इनका हमारा साथ हो गया। हम लोग इसके आग्रह से इसी के जहाज में बैठे । मार्ग में जो कुछ भी विघ्न आते थे| उन्हें मैं अपने पास के पाँच रत्नों द्वारा दूर करती रहती थी । थोड़ी दूर जाने पर इस पापी सेठ के चित्त में कुबुद्धि उत्पन्न हुई । इस पापी ने मेरे पति को जो इस पर पूर्ण विश्वास रखते थे, समुद्र में धक्का देकर गिरा दिया। मेरे पति को समुद्र में धक्का | दे देने के कारण मुझे अत्यन्त दुःख हुआ। मैं भी उनके पीछे समुद्र में कूदकर प्राण देने के लिए तैयार हुई । किन्तु उस वृद्धा स्त्री ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया । राजेन्द्र ! उसके बाद मैं पति वियोग से रुदन कर रही थी कि, मेरे पास यह पापी सेठ आया, और मुझे अपने आधीन होने के लिए कहने लगा । समुद्र के बीच इसकी सत्ता के वशीभूत होने के कारण मैंने विचार किया कि - "यदि मैं इस | समय इस पापी का तिरस्कार करूँगी अथवा इसके विरुद्ध होऊँगी तो यह किसीन-किसी उपाय से मेरे धर्म को अवश्य ही नष्ट करेगा।" यह सोचकर मैंने इस पापी को शान्त रखने के लिए कहा - "सेठजी ! आप धैर्य रखिए, इस समय मुझे आपका ही आधार है । मैं आपकी आज्ञा पालन करने के लिए तैयार हूँ । किन्तु मेरे स्वर्गस्थ पति की दस दिन तक की उत्तर क्रिया से निपटकर किसी भी राजा की आज्ञा से आपको अपना पति बनाऊंगी ।" मैंने अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा के लिए इस पापी सेठ को इस प्रकार समझाकर खुश कर दिया था । अब, जब मुझे आपकी पवित्र शरण प्राप्त हुई तब मैंने आपके सामने निर्भय होकर यह सत्य वृत्तान्त निवेदन किया है। मदालसा की यह बातें सुन कर राजा नरवर्मा सेठ कुबेरदत्त पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । तत्काल उसने अपने सेनापति को बुलाकर हुक्म दिया कि “इस दुष्ट व्यभिचारी सेठ का सब माल अपने कब्जे में कर लो, और इसे जेलखाने में बन्द कर दो।" राजा की आज्ञा होते ही सेनापति कुबेरदत्त को बान्धकर जेलखाने में ले 39

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