Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 44
________________ दसवाँ परिच्छेद पाप का भण्डा फूटा समुद्र के किनारे एक बन्दरगाह है । उसी के पास एक छोटी सी राजधानी भी| है । लोग इस राजधानी को मोटपल्ली कहते हैं । अनेक देशों के लोग यहाँ व्यापार करने के लिए आते-जाते रहते हैं । तरह-तरह की उत्तमोत्तम वस्तुओं से नगर के बाजार भरे पड़े हैं। व्यापार लक्ष्मी की प्रसन्नता से समस्त प्रजा सुखी है। व्यापारियों की हवेलियाँ नगर के बीच में बनी हुई है। जहाँ विविध भाँति के आनन्दोत्सव होते रहते हैं। इसी सुन्दर नगर में एक नरवर्मा नामक राजा राज्य करता है। राजा नरवर्मा जैन धर्म का उपासक है। उसके मनोहर राजमहल में एक सुन्दर जिनालय भी बना हुआ है। राजा नरवर्मा वहाँ जाकर त्रिकाल जिन दर्शन पूजन करता है। धार्मिक वृत्ति वाले महाराजा नरवर्मा के नीति युक्त राज्य में सब तरह से प्रजा सुखी है । एक समय राजा नरवर्मा राज-काज से निवृत्त हो महलों में बैठा हुआ था । मुख्य सेवक उसके हृदय को शान्त एवम् प्रसन्न रखने के लिए अनेक तरह की सेवाएँ कर रहे थे । कोई उसके पैरों को दबा रहे थे, कोई शीतल एवम् सुगन्धित द्रव्य लिये हाजरी में खड़े थे, कोई मोर पंख के कोमल पंखे से हवा कर रहा था। कोई स्वर्ण की तश्तरी में पान बीड़े बगैरह मुखवास द्रव्य लिये खड़ा था। कोई उसके हृदय को प्रसन्न करने के लिए मधुर स्वर से गायन कर रहा था। ___इस प्रकार राजा नरवर्मा अपने सेवकों द्वारा सुश्रूषा करवाते हुए आसन पर विराजमान थे । इतने ही में एक छड़ीदार ने आकर नमन करते हुए कहा - "सरकार ! कोई एक प्रतिष्ठित गृहस्थ एक सुन्दर स्त्री के साथ आप से मिलने के लिए अन्दर आने की आज्ञा चाहता है, क्या हुक्म है ? राजा ने स्त्री सहित उसे भीतर आने की आज्ञा दी । छड़ीदार उन दोनों स्त्री पुरुषों को दरबार में ले आया । वह युवक शिष्टाचार पूर्वक प्रणाम करके पास ही में खड़ा हो गया । वह कुलीन बाला 37

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