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भी जिस तरह पुत्री अपने पिता को प्रणाम करती है, उसी तरह राजा को प्रणाम
कर खड़ी हो गयी । राजा ने उन्हें उचित आसन पर बैठने की आज्ञा दी। वे दोनों उसके सामने बैठ गये । बैठ जाने के बाद राजा ने पूछा तुम कौन हो ? और तुम्हारे साथ यह स्त्री कौन है ? यहाँ क्यों आये हो ?"
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उसने नम्रता पूर्वक कहा - "महाराज ! मैं कुबेरदत्त नामक एक व्यापारी हूँ । मेरा व्यापार जल मार्ग द्वारा होता है । कल मेरे जहाज आपके बन्दर पर आकर लगे हैं । यह स्त्री मुझे चन्द्र द्वीप से मीली है और यह मेरे साथ विवाह करना चाहती है । यदि आप आज्ञा दें तो आपकी साक्षी से मैं इस स्त्री से विवाह कर लूँ ।"
सेठ कुबेरदत्त के यह वचन सुनकर, न्यायी महाराजा ने उससे पूछा "बहिन ! यह सेठ जो कुछ भी कहता है, क्या वह सत्य है ? इसके साथ विवाह करने में तूं राजी है ?" राजा के मुँह से "बहिन " शब्द सुनते ही उस रमणी के चित्त में पूर्ण विश्वास हो गया कि - "यह राजा मेरे धर्म की रक्षा अवश्य ही कर सकेगा । " | उसने निर्भय होकर कहा - " हे प्रजापालक, मेरे पिता रूप महाराज ! यह सेठ जो कुछ भी कहता है, वह बिलकुल झूठ है । यदि आप मेरा वृत्तान्त शुरू से सुनेंगे तो | आपको इसके कपट - जाल का पूरा पता लग जायगा ।"
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रमणी के यह वचन सुनकर न्यायी राजा ने बड़ी ही उत्सुकता से पूछा "बहिन ! शान्त और निःशंक होकर जो कुछ भी सत्य घटना हो वह निर्भय होकर मुझसे कहो । दुखी जनों का दुःख दूर करना हमारा धर्म है ।" राजा के यह वचन सुनकर वह स्त्री निर्भयता पूर्वक कहने लगी " धर्म - पिता ! मेरा नाम मदालसा है । मैं एक अन्यायी राक्षस की पुत्री हूँ । मेरे पिता ने यह निश्चय करके, | मुझे एक गुप्त महल में रखी थी कि वह किसी मनुष्य के साथ मेरा विवाह नहीं करेगा । मेरी रक्षा के लिए मेरे पिता ने मेरे पास एक बुढ़िया स्त्री को भी रखा था । उस कारागार रूपी महल में मैं बहुत बरसों तक रही । एक दिन दैवयोग से वाराणसी नगरी के राज - पुत्र उत्तमकुमार वहाँ आ पहुँचे । उस राजपुत्र को सर्वगुण सम्पन्न देखकर मैंने उससे अपना प्रेम सम्बन्ध कर लिया । हम दोनों को
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