Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 34
________________ मेरे कहने पर विश्वास कर वे लोग कुएँ पर आये, और पानी भरने लगे परन्तु पात्रों में पानी आया नहीं । यह देखकर एक नाविक ने कहा - "किसीने जल को रोक दिया है, इसलिए जब तक कोई कुए में उतरकर पानी को नहीं खोलेगा तब तक पानी प्राप्त नहीं हो सकता ।" मल्लाह की यह बात सुनकर जब मैं कुएँ में उतरने के लिए तैयार हुआ तो मेरे मित्र सेठ कुबेरदत्त ने मुझे रोका। किन्तु लोगों की प्यास बुझाने के लिए मैं साहस कर रस्सी के बल कुएँ में उतरा । भीतर पहुँचकर मैंने देखा कि | जल के उपर स्वर्ण की जाली पड़ी हुई है । जल पात्र उस पर ठहर जाते थे और पानी नीचे रह जाता था । मैंने उस जाली को हटा कर कुएँ में से पुकार कर कहा कि "अब पानी भरो और खींचो।" यह सुनते ही लोगों ने पानी भर लिया । मैंने उस जाली के पास, कुएँ की दीवार में एक दरवाजा देखा । उसको खोलकर मैं अन्दर घुसा और यहाँ आ पहुँचा हूँ ।" 1 राजकुमार के मुख से यह बात सुनकर वह वृद्धा बहुत ही प्रसन्न और आश्चर्यान्वित हुई । उसका साहस और परोपकार वृत्ति देखकर वह मनही - मन धन्यवाद देने लगी । उसके हृदय में कुमार के प्रति अत्यन्त श्रद्धा और आदर उत्पन्न हो गया। I वह बुढ़िया और राजकुमार इस तरह आपस में बातें कर रहे थे । इनकी आवाज महल में मदालसा ने सुनी । वह राक्षस कन्या शीघ्र ही नीचे आई जहाँ उसने एक अतीव सुन्दर राजकुमार को देखा । मानव आकृति में ऐसा अद्भुत सौन्दर्य देखकर वह मोहित हो गयी । उसके प्रेमी हृदय में राजकुमार की अमिट तस्वीर अङ्कित हो गयी । वह ऐसा समझने लगी मानों मेरा आज तक का कौमार्यव्रत सफल हुआ । कुमार भी उस रूप - लावण्य सम्पन्ना सुन्दरी को | देखकर स्तब्ध रह गया । उस सुन्दरी के प्रति अपने हृदय में शुद्ध प्रेम उत्पन्न होने के कारण वह मन-ही-मन सोचने लगा - "अरे, यह क्या बात है ? मैं परनारी - सहोदर हो कर भी इस पर अनुरक्त हो गया ? यह क्या कारण है ? अवश्य ही मेरा इसका कोई पूर्व सम्बन्ध होना चाहिए। नहीं तो मेरे हृदय में ऐसा विकार हो ही नहीं सकता । 27 -

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